व्यंग्य :नजरबाजों को भी धोखा हुआ...
एक बार कोई लिखना शुरू करता हे तो वह धीरे धीरे अपने आस पास के लोगों को घूरना भी चालू कर देता है। अगर आप नहीं घूरेंगे तो कैसे किसी आदमी या समाज की आदतों से वाकिफ हो सकेंगे ओर कैसे जीवन शैली पर लिख सकेंगे। लेकिन इंसानी फितरत भी एक चीज है। वह धार्मिक कॉलम पढ़ेगा उसके बाद आहिस्ता से पत्रिका खोल कर विशेषज्ञ की सलाह पढ़ेगा और सलाह के लिये पूछे गये सवाल अधिकांश सेक्स जुड़े होते हैं और ऐसे बेपर्दा कि बताने में शर्म आती है। चलो ठीक है लेकिन यहां जो कह रहा था कि इंसानों को घूरना लिखने के लिये जरूरी है। इसी बात पर हमारे एक दोस्त ने पूछा यार लस्टमानंद तुम क्यों घूरते हो? मैंने कहा, भाई मैं फैशन पर कुछ लिखना चाहता हूं।
- तो क्या तुम फैशन डिजाइनर हो या समाजविज्ञानी या मनोविज्ञानी हो कि इस पर लिखोगे।
मैने कहा नहीं भाई ऐसा कुछ नहीं हूं मैं तो ऐसी बातों पर लिखना चाहता हूं कि आखिर हमारे देश की नारियां अपने आकार प्रकार के मुताबिक कपड़े क्यों नहीं पहनतीं। आप किसी मॉल में जाएं तो पायेंगे कि खूब तंदुरुस्त(मोटी नहीं कहते बेशरम) महिलाएं या लड़कियां अपनी साइज से दो साइज छोटे कपड़े पहन कर उसमें फंसी फंसी सी लगतीं हैं। लगता है कि उनके अंगविशेष कपड़ों को फाड़ कर मुक्त होने को उद्धत हैं और कपड़े हैं कि उन्हें दबाये रखने की जिद्द में हैं। अब मेरी मुश्किल यह होती है कि इन ‘सुदरियों’ को क्या कहूं एक मन नहता है कि उन्हें देखूं ही नहीं और दूसरा मन कहता है कि पूछ देखूं कि मैडम आपके घर में आइना है या नहीं। मैं इसी जद्दोजहद में रहता हूं और वे कमरा हो चुकी अपनी कमर को मटकाती चली जातीं हैं। मुझे तो यह लगता है कि वे संदरियां यह सोचती होंगी कि ऐसे कपड़े में घुस जाओ जिससे तुम्हारे हर अंग की बनावट का साफ अंदाजा लग जाय, दुनिया जाये भांड़ में। मैंने एक बार ऐसी ही घुटनों से चार अंगुल नीचे तक अत्यंग टाइट जिंसवेष्ठित बाला को देख कर मुझे लगा कि कि कहीं गलती से छोटी बहन का तो नहीं पहन कर आ गयी है मैंने उससे पूछा कि यह तुम्हारा ही वस्त्र है तो उसनेमेरी ओर कुछ ऐसी निगाहों से देखा कि जैसे लौटते मंगलयान पर सवार हो कर अभी अबी उतरा हूं। उसने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया, यानी वह वस्त्र उसी का था। मैंने पूछा कि मैडम इसे आपने पहन के सिलवाया है या सिलवा कर पहना है। वह नाराज हो गयी और पांव पटकती हुई चली गयी और पीछे से उनकी अधोकटि के मूवमेंट को देखता रहा। उस मूवमेंट में गुस्सा साफ साफ झलक रहा था। इससे मैंने जाना कि कोई कन्या तंग या टाइट लिबासो में झूठ नहीं बोल सकती क्योंकि उसकी देह सच बोल देती है। यकीनन इन्हें देख कर लगता है कि
नीचे खुरदुरी पतलून है ऊपर शर्ट मर्दाना
ये लिबास रेशमा को रेशमी होने नहीं देते
यही नहीं अब बड़ी जगहों में कन्याओं को सुपर शॉर्ट निकर में भी देखा जा रहा हे। इनमें दो तरह की टांगें ज्यादातर दिखतीं हैं एक तो बिलुल काठी की तरह सूखी , सांवली कांतिहीन तथा 6 फुट के आस पास लम्बाई और दूसरी बिल्कुल थुलथुल मोटी , चिकनी ऐसी र्जैसे मांस की थोक दुकान हो। ऐसी (अ) सुंदरियां लगता है कि फैशन की शहीद हों। अरे भाई फिट या फैट होना तो उनका विशेषाधिकार है लेकिन वस्त्र तो जरा देख ताक के पहनें।
हमारे दौर का फैशन ये कह रहा है ‘रहीम’
बराये नाम भी तन पर कोई लिबास ना रख
यहां कहने का अर्थ यह नहीं है कि इससे कुछ हो जायेगा या कोई बुरा कर बैठेगा उसे रोकने के लिये तो कानून है ही। यहां मुख्य मसला है कि हमारे साहित्य में सौंदर्य वर्णन का क्या होगा? वैसे पुराने जमाने में भी फिट और फैट का चक्कर था वर्ना चचा गलिब यह कह कर नहीं सलट जाते कि ‘सुना है सनम को कमर ही नहीं है।’ अब चचा गालिब से कौन पूछे कि ‘मियां आपकी वो सनम पैजामा कहां बांधती थी।’ यही नहीं काका हाथरसी भी कह गये हैं कि ‘गोरी बैठी छत पर कूदन को तैयार ....... ऊपर मोटी नारि नीचे पतरे कक्का।’ बात यहीं तक हो तो गनीमत थी। अब तो हालात ये हैं कि
नजरबाजों को भी धोखा हुआ फैशन की झिलमिल से
वो अक्सर अच्छी खासी छोकरी को छोकरा समझ बैठे
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