भारत में शिक्षा की स्थिति और समाज
देश में 18 से 24 वर्ष के स्नातक से नीचे के लगभग 44.81 मिलीयन छात्र –छात्रायें इतनी गरीब हैं कि वे अपनी पढ़ाई आगे जारी नहीं रख सकतीं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अखिल भारतीय उच्च शिक्षा के सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है। कुल छात्रों में से लगभग 22 मिलीयन छात्रों ने विभिनन पाठ्यक्रमों में निजी शिक्षा संस्थानों में नाम लिखवा रखा है। आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 76 प्रतिशत उच्च शिक्षा के संस्थान हैं। देश में 712 केंद्रीय और राज्य सरकारों के विश्वविद्यालय है जिनके तहत 36,671 कॉलेज हैं। जिनमें 11,445 संस्थान डिप्लोमा पाठ्यक्रम चलाते हैं। पूर्ववर्ती योजना आयोग के योजना पत्र के अनुसार उच्च शिक्षा के लिये सरकारी संस्थानों की संख्या 2006-07 के 11,239 से 2011-12 में बढ़कर 16,768 हो गयी। जबकि इसी अवधि में निजी संस्थानों की संख्या में 63 प्रतिशत इजाफा हुआ। आलोच्य अवधि में यह 29,384 से बढ़ कर 46,430 हो गयी। राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के आंकड़े बताते हैं कि 21 वीं सदी के पहले दशक में उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में 54 प्रतिशत कालेज छात्र निजी संस्थानों में दाखिले के लिये बाध्य हो जाते हैं क्योंकि सरकारी संस्थानों की संख्या पर्याप्त नहीं है। यही नहीं रोजगार की संभावना के लोभ में छात्र निजी संस्थानों के डिप्लोमा पाठ्यक्रम में नामांकन के लिये बाध्य हो जाते हैं। यही नहीं , इस तरह के पाठ्यक्रमों के लिये सरकारी संस्थानों की संख्या जरूरत से कम है। सरकारी संस्थानों की संख्या की काफी मांग है पर अब तक सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया और बच्चे महंगे निजी संस्थानों की ओर जाने के लिये बाध्य हैं। दुख इस बात का है कि निजी संस्थानों में से अदिकांश में गुणवत्ता का अभाव है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रपटों के अनुसार 2007-08 में निजी संस्थानों में प्रति छात्र 2,461 रुपया व्यय था जबकि 2014 में यह बढ़ कर 6778 रुपया हो गया। यह साधारण पाठृयक्रम का खर्च है। तकनीकी शिक्षा में यह उसी अवधि में 32,112 रुपया से बढ़ कर 62,841 रुपया हो गया और पेशागत शिक्षा में 14,881 रुपया से बड़कर 27,676 रुपया हो गया। नयी शिक्षा नीति पर 2016 में सौंपी गयी सुब्रमणियम कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षा के अनियंत्रित निजीकरण के कारण देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थानों का प्रसार हुआ। इनमें से अदिकांश संस्थान डिग्री बेचने की दुकान के अलावा कुछ नहीं हैं। हालांकि बहुत कम संस्थान हैं जो श्रेष्ठता के केंद्र के तौर पर जाने जाते हैं। ऐसे केंद्रों में सरकारी और गैर सरकारी दोनों संस्थान शामिल हैं लेकिन अधिकांश तो बस दोयम दर्जे के हैं और डिग्री बेचने की दुकान बन कर रहे हें। निजी संस्थानों में फीस सरकारी संस्थानों के मुकाबले दुगना से बी ज्यादा है। हालांकि उनपर मुनाफा कमाने पर रोक है फिर भी इसका शॉर्टकट खोज लिया जाता है। 2013 की एक रपट के मुताबिक देश में शिक्षा का बाजार 46000 करोड़ का है और यह 18 प्रतिशत सालाना की दर से बड़ रहा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रपटों के मुताबिक निजी तकनीकी संस्थानों में नामांकन की दर 74 प्रतिशत है क्योंकि तकनीकी शिक्षा की मांग ज्यादा है और ज्यादा बच्चे डॉक्टर , इंजिनीयर बनना चाहते हैं और सरकारी संस्थान इतने ज्यादा हैं नहीं। जबकि स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर में इनका अनुपात महज 39 प्रतिशत है। भारत में उच्च शिक्षा में दाखिले का अन्य विकासशील अर्थ व्यवस्थाओं के मुकाबले तेजी से गिरता अनुपात चिंता का विषय है। मानव संसादान विकास मंत्रालय की रपट के अनुसार 2004 में सकल नामांकन अनुपात (जी इ आर ) 10 प्रतिशत था जो 10 वर्षो के बाद 2014 में बढ़ कर महज 23.6 प्रतिशत हुआ जबकि विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि ब्राजील में इसी अवधि में यह 46 प्रतिशत, चीन में 30 प्रतिशत , दक्षिण अफ्रीका में 20 प्रतिशत और रूस में 78 प्रतिशत है। उच्च शिक्षा में सकल घरेलू नामांकन की दर स्कूल या हायर सेकेंडरी पास करने वाले छात्रों की संख्या के अनुपात में बहुत कम है। 16-17 साल के अधिकांश बच्चे स्कूली शिक्षा के बाद पढ़ाई जारी नहीं रख पाते। इसे ही बहाना बनाकर सभी सरकारों ने उच्च शिक्षा में निजी संस्थानों को बढ़ने का मौका दिया है लिहाजा 2004 से 2014 के बीच निजी संस्थानों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। यही नहीं , इन संस्थानों की ऊंची फीस के कारण और छात्र नहीं पढ़ पा रहे हैं। इसे देख कर लगता है कि हर साल देश में कम पढ़े लिखे नौजवानों की संख्या तेजी से बड़ती जा रही है।
बात केवल उच्च शिक्षा की हो तो गनीमत थी। संसद में 5 दिसमबर 2016 को सरकार द्वारा पेश रपट में स्वीकार किया गया है कि देश के सरकारी प्राथमिक स्कूलों में 18 प्रतिशत और सेकेंडरी स्कूलों में 15 प्रतिशत शिक्षकों का अभाव है। देश के 26 करोड़ बच्चों में से 55 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। इसके अलावा बहाली में धोखाधड़ी और फर्जी डिग्रीयां इत्यादि उपलब्ध शिक्षकों के अबाव को और बड़ देता है। लोकसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक साक्षरता की दर और शिक्षकों की कमी में सीधा सम्बंध है। महाराष्ट्र में सर्वाधिक साक्षरता दर 82.3 प्रतिशत है तो वहां के सरकारी स्कूलों में केवल 2.07 प्रतिशत शिक्षकों का अभाव है। जिस गुजरात मॉडल की ढोल पीटा जाता है वहां साक्षरता दर 78 प्रतिशत है और वहां 33.57 प्रतिशत शिक्षकों के पद रिक्त हैं जबकि पिछड़ा कहे जाने वाले बिहार में 36.09 प्रतिशत शिक्षकों का अभाव है।
इसका मतलब है कि बढ़ती महंगाई, अधपड़े नौजवान और बेरोजगारी एक नयी समाजिक समस्या को जनम दे सकती है जो शायद सियासी लोकप्रियता के जोम में यह स्थिति दिख नहीं रही है।
0 comments:
Post a Comment