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Sunday, December 25, 2016

जायज होती है हर बात सियासत में

जायज होती है हर बात सियासत में 
नोटबंदी समर्थक भक्तों में इन दिनों चर्चा है कि यह एक क्रांति है. लेकिन यह एक अतिशयोक्ति है. दरअसल हम इस समय सुधर के दौर से गुजर रहे हैं. लेकिन यह भी नहीं है कि हमारे इस गुजरने में आवेग है जैसा अक्सर गतिज अवस्था में होता है और ना किसी तरह कि गतिज जड़ता है. ऐसा भी नहीं है कि हम इस गुजरने  के जोम में मौजूदा सामाजिक संरचना से भीड़ जाएँ एक नवीन समाज को गढ़ने के लिए. ऐसा लगता है कि हमें कोई हांक कर एक ऐसे मोड़ तक ले आया है जहां से आगे कुछ सूझ नहीं रहा है. अगर इसके लिए कोई शब्दावली है तो काम चलाने के लिए कह सकते हैं मनोवृत्ति का कल्याणवाद. सारी प्रक्रिया में सत्ता का ऊपर से नीचे की ओर बढाने का प्रयास दिख रहा है. नोट बंदी की ही बात लें, जनता समस्त प्रक्रिया में एक मजबूर जमात की भूमिका अदा कर रही है. ऊपर से सफाई का हुक्म आया और “जमीन “ पर सफाई शुरू हो गयी. कालेधन का हौवा जिसने कई महीनो से जनता के एक बड़े भाग को एक अनुशासित भीड़ में तब्दील कर दिया है वह कड़ी है किसी दूसरे आदेश के इंतज़ार में. अब यह नेता पर निर्भर करता है कि वह उन्हें किस ओर हांकता है. 
नगदी विहीनता ( कैशलेसनेस ) की अवस्था एक ऐसा तजुर्बा है जो कई लोगों के लिए खुद में एक इंतिहा है , एक तरह की समाप्ति है, खात्मा है. लेकिन नहीं यह खात्मे का एक जरिया है. नोट बंदी का उद्देश्य भारतीय जीवनशैली को मुद्रा मुक्त करना. इससे किसी को गुरेज़ नहीं हो सकता, इसके तरीकों पर कोई ऊँगली उठा सकता है. लेकिन यह सरल नहीं है. यह शयन कक्ष में हाथी पालने की मानिंद मुश्किल है. राजनितिक दलों को मिलने वाले धन की अपारदर्शिता को खत्म करना सरल नहीं है. कालाधन और चुनावी धन में अन्योंयाश्राय सम्बन्ध हैं . जबतक यह ख़तम नहीं होता हमारी गति अंधे और हाथी की कहानी वाली होगी. जिसमे अगर हाथी की पीठ पर अंधा हाथ लगाता है तो कहता है हाथी दीवार की तरह होती है और कन पकड़ता हो कहता की हाथी सूप की तरह होती है. अगर धन की कालिमा ख़त्म करनी है और स्वच्छता लानी है तो इस रस्ते को दुरुस्त करना होगा. राजनितिक अर्थव्यवस्था जो काले धन को पैदा लेने और फलने फूलने में सहयोग देती है उसे ख़त्म करना होगा. चुनाव आयोग जो दिखता तो निर्णायक की तरह है पर इस मामले में  असहाय है.  चुनाव ही लोकतंत्र बन गया है. . जैसे मंदिर मठ खुद धरम बन बैठे हों और धर्म असहाय सा दिखता हो. चुनाव आयोग बारम्बार नेताओं से कहता है कि खर्चे कम करें और सरकारी खर्च पर चुनाव हो. लेकिन सब बाटी होती रहीं. अलबत्ता , चुनाव खर्चों की सीमा तय जरूर हो गयी लेकिन उससे क्या हुआ? कई शोर्ट कट हैं , कई बाई पास हैं इस सीमा को लांघने के. जैसे बड़े प्रचारक को बुलाने , केन्द्रीय नेताओं को लाने ले जाने के खर्चे इस सीमा में नहीं आते. इन दिनों बड़े फिल्म स्टार्स और बड़े केन्द्रीय नेताओं को प्रचार में बुलाने का फैशन इसी के कारण बाधा है. पहले यह एक बाई पास था अब यह एक राजपथ हो गया है. अब मुफ्त में काम करने वाले कार्य करतानहीं मिलते. इन दिनों एक छोटे विधान सभा चुनाव क्षेत्र में केवल बूथ प्रबंधन के लिए रखे गए कार्य कर्ताओं के चाय पानी का खर्च 2- 3 करोड़ हो जाता है. चुनाव आयोग जो नगदी चुनाव के समय जब्त करता है वह तो बेहद मामूली है. जो रूपए खर्च होते हैं उनक्ला बड़ा हिस्सा तो गिना भी नहीं जाता. लोक तंत्र के सुचारू रूप से चलते रहने के लिए यह राशि जमा की जाती है . राजनितिक हलकों में एक तरह से यह कर्ज माना जाता है. जो रकम ली गयी है उसे नीतियों में बदलाव कर चुकाया जाता है. 
ए टी एम की कतार में खड़े भारतियों को इस नोत्बंदी का असली मज़ा तो तब आयेगा जब वह चुनाव को  नगद विहीन देखेगा और लोकतंत्र को कैशलेस देखेगा. ऐसे चाहे जितनी बड़ी बड़ी बातें हों पर हकीकत यह है कि राजनीती इन सरे सुधारों और कथित क्रांतियों से ऊपर रखी जाती है जान बूझ कर.  इसका क्या होगा मोदी जी देश को बताईये ना .     
सच्चाई खाती है अक्सर मात सियासत में 
दिन होता है अक्सर रात सियासत में 
गूंगे कर लेते हैं बात सियासत में 
और ही होते है हालत सियासत में 
जायज होती हर बात सियासत में. 

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