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Friday, December 9, 2016

नोट बंदी का असर: न माया मिली न राम

नोटबंदी का असर :  न माया मिली न राम
हर भारतवासी को  देश के आर्थिक इतिहास की वह तूफानी रात 8 नवम्बर 2016 याद होगी जिस दिन हमारे प्रधाननमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने एक हजार और पांच सौ के नोट उठाने की घोषणा कर तूफान खड़ा कर दिया था। जिस तरह भयंकर तूफान के बाद देश का काम काज ठप हो जाता है उसी तह उस तूफान के बाद के देश भर के आर्थिक कारोबार की तंत्रिका के तौर पर बने बैंकों का काम काज ठप रहा , बैक बंद रहे। उसके बाद राहत के लिये घिघियाते लोगों की लम्बी कतारें बैंकों के सामने। वे कतारें बेशक कुछ कम हो गयी​ हैं लेकिन आज एक माह के बाद भी कायम हैं। बैंकों से पर्याप्त पैसा नहीं मिल रहा है। सारे एटीएम अभी तक सही ढंग से काम नहीं कर पा रहे हैं। इस बीच कई बार उस फैसले में संशोधन किये गये और बार राहत के तौर तरीकों में बदलाव आया। आलोचनाएं हुई और प्रशंसा हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे गृह युद्दा भड़क सकता है। कई मोदी समर्थक लोगों ने कीन्स के अर्थ शास्त्र के हवाले से कहा कि इसका असर सही होगा कई परम ज्ञानियों ने शरलक होम्स का हवाला दिया पर इन संदर्भों को भगवान ही जानता है कि कहां से और किन अर्थो में कहे गये हैं। लेकिन जब बात शरलक होम्स की चली है तो यहां ‘ए स्टडी ऑफ स्कारलेट’ में शरलक होम्स को यह कहते हुये प्रस्तुत किया गया है कि ‘अपार्यप्त आंकड़ों के आधार पर कोई विचार ना बनाएं क्योंकि इस तरह के विचार अक्सर गलत होते हैं।’ जहां तक इस संदर्भ में नोटबंदी का सवाल है तो गत 7 दिसम्बर को भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक समीक्षा में नोटबंदी के सामाजिक प्रभाव का सबसे अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है। भारतीय रिजर्व बैंक देश के मौद्रिक फैसलों का आधिकारिक संस्थान है। एक सरकारी फैसले पर वह विगत एक माह से जन आक्रोश का निशाना बनता रहा है। रिजर्व बैंक ने अपनी समीक्षा में व्याज दर में कमी करने से इंकार कर दिया है। यानी थ्ण पर व्याज वही लगेगा जो नोटबंदी के पहले लगता था। जबकि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के प्रभावों को गिनाते हुये कहा था कि अब व्याज दर कम हो जायेंग और सस्ते में व्याज मिलेगा। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यह यह नोटबंदी के लाभ के आश्वासनों का सबसे झूठा स्वरूप है। गत आठ नवम्बर को हमारे प्रधान मंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में आश्वासन दिया था कि ‘नोटबंदी से देश में भ्रष्टाचार और कालेदान का शिकंजा टूट जायेगा। ’यहां हकीकत यह है कि जितना रुपया बाजार में था वह लगभग पूरा अब बैंकों में आ चुका है। प्रधानमंत्री ने जैसी घोषणा की थी वे सारे रुपये रद्दी के  टुकडों में नहीं बदल सके। अब यह कहा जा रहा है कि बैंकों में जो रुपये आये वे अशौच नहीं थे। इस पर एक अनय विचार समूह का कहना है कि जमा रुपयों की गिनती उतनी की हो रही जो बैंकों में लौट कर आये हैं। यह गिनती सम्पूर्ण नहीं है। अब सरकार सोच नहीं पा रही है कि इस पर क्या किया जाय इसलिये अब इस पर कोई बी बात करने से वह गुरेज कर रही है। अब सरकार ने बड़ी चालाकी से अशौच धन या काला धन से अपनी बहस को नगदी विहीन या यों कहें कि कैश लेस अर्थ व्यवस्था पर केंद्रित कर दिया है। दर असल हमारी अर्थ अर्थ व्यवस्था अब लेस कैश अर्थ व्यवस्था में बदलती जा रही है। जहां तक नकली नोटों का सवाल है तो वह बाजार में चल रहे कुल रुपयों का महज 0.02 प्रतिशत ही मिला है। अब यह सवाल उठता है कि 0.02 प्रतिशत के लिये 84 प्रतिशत नोटों के चलन को बंद कर देना कहां की अक्लमंदी थी। 

अब विगत एक महीने से विशेषज्ञ यह मानते आ रहे हैं कि यह सारी कवायद निष्फल हो गयी , बेकार हो गयी। साथ ही जो लाभ बताये गये थे वे नहीं हासिल हो सके तथा यह कोई अच्छी समर नीति नहीं थी। ऐसा लगता है कि यह रॉबिन हुड की कथाओं में उसकी योजनाओं का विपरीत प्रभाव है। जिस तरह रॉबिन हुड अमीरों की र्दौलत लगातार गरीबों को देता था उसी तरह की यह योजना बनी थी पर हुआ कुछ नहीं। रिजर्व बैंक के ही आंकड़े बताते हैं कि इससे अनौपचारिक क्षेत्र को सबसे ज्यादा आघात लगा है। देश के कुल कामकाजी लोगों यानी वर्कफोर्स का 90 प्रतिशत भाग इस क्षे1ा में लगा है और देश की 45 प्रतिशत जी डी पी को प्रभावित करता है। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि कालादान रखने वालों ने अपनी दौलत सफेद करने का कोई बाईपास खोज लिया होगा और हो सकता है कि कालाधन फिर से सक्रिय हो जाय। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार नीतिन देसाई का कहना है कि इस नोटबंदी से नगदी लेनदेन सासे ज्यादा प्रभावित हुआ है यह जायज भी और नाजायज भी। अब महतवपूर्ण यह है कि सरकार इसके बाद क्या करती है। क्या वह टैक्स चोरी करने वालों को पकड़ती है और उनपर कठोर कार्रवाई करती है या नहीं। जहां तक कालेधन का सवाल है तो राजनीतिक दल इसके केंद्र में हैं और अब देखना यह है कि सरकार का उनके प्रति कैसा रवैया रहेगा क्योंकि जो सरकार है वह भी किसी दल की है। 

एक महीने से चल रही इस आर्थिक कसरत की सफलता इस बात पर निर्बर करती हे कि बदले गये नोटों का अनुपात कुल बंद नोटों का कितना प्रतिशत है। इससे करवंचकों द्वारा जमा की गयी राशि का अंदाजा लग सकता है। अभी तक के हालात तो यह बता रहे हैं कि जमानोटों और बंद किये गये नोटों के प्रतिशत के सम्पूर्ण आकलन के बाद भी आनेवाले दिन गुलाबी नहीं होंगे। 

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