कहीं यह साजिश तो नहीं है
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अबसे लगभग एक महीने पहले 8 नवम्बर की रात 8.15 बजे देश के नाम एक सीधा प्रसारण में हजार और पांच रुपयों के नोट को बंद करने की घोषणा की। हलांकि कथित तौर यह प्रसारण लाइव नहीं था और इसे पहले से रिकार्ड किया गया था। वैसे अमूमन ऐसे ऐलान अक्सर वित्तमंत्री या भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर किया करते हैं, परम्परा यही है। प्रधानमंत्री ने इस कदम का उद्देश्य कालाधन निकालने और ‘टेरर फंडिंग’ को रोकना था। इस घोषणा के तुरत बाद चारो तरफ अव्यवस्था फैल गयी। खबरों के मुताबिक नोटबंदी या विमुद्रीकरण के इस कदम से जुड़ी परेशानियों के कारण अब तक 80 लोगों की मृत्यु हो चुकी है इनमें कुछ लोगों ने अवसाद से न जूझ पाने के कारण आत्म हत्या भहु कर ली है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कदम की तीखी आलोचना करते हुये कहा कि ‘यह एक क्रूर कदम है ,’ नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अर्मत्य सेन ने इसे सत्तावादी कदम बताया ओर मायावती ने कहा कि ऐसा लगता है कि हम यातना शिविर में रह रहे हैं, पश्चिम बंगाल के पूवं राज्यपाल ओर गांधीवादी चिंतक गोपाल कृष्ण गांधी ने कहा कि ‘वर्तमान दशा देख कर मुझे हैरत हो रही है और मैं सोच नहीं पा रहा कि जनता जिस र्धर्य का प्रदर्शन कर रही है उस पर प्रसन्नता जताउं या उनके विरोध के समाप्त हो जाने पर दुख व्यक्त करूं।’ पूर्व प्रधानमंत्री और विख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने इसे ‘संगठित लूट’ कहा। उद्योग पति रतन टाटा ने ‘विशेष राहत ’ की मांग की। जिन्होंने इतिहास पढ़ा होगा उनहें मालूम होगा कि अमरीकी फेडरल बैंक ने 1929 में 35 प्रतिशत नोटों को चलन से बाहर कर दिया था और वह भयानक मंदी में फंस गया था भारत में तो हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक झटके में 86 प्रतिशत नोट वापस ले लिये , परिणाम का अंदाजा आप लगा सकते हैं।
प्रधानमंत्री के इस कदम को ‘डिमोनेटाइजेशन’ यानी विमुद्रीकरण कहा जा रहा है। जहां तक पारिभाषिक शब्द का प्रश्न हे तो ‘डिमोनेटाइजेशन’ यानी विमुद्रीकरण का अर्थ होता है किसी करेंसी यूनिट को समाप्त करना , जैसे हमारी करेंसी यूनिट है रुपया। इसका अर्थ करेंसी को ही खत्म करना नहीं है। यूरोपियन मोनेटरी यूनिट को उस समय बदला गया जब यूनियन के सदस्य देश मिले थे। यही नहीं , जब सोने की जगह कागजी नोट चला था तब उसे ‘डिमोनेटाइजेशन’ यानी विमुद्रीकरण कहा गया था। यह तो करेंसी ही बंद कर दी गयी। प्रधानमंत्री ने कहा कि कालाधन समाप्त करने के और टेरर फंडिंग रोकने के लिये किया गया है। पर शायद यह देश भ्रमित करने का जुमला है। क्योंकि सभी जानते हैं कि कालाधन नोटों की शक्ल में नहीं होता और टेरर फंडिंग के अन्य रास्ते हैं जैसे विदेशी मुद्रा में भुगतान इत्यादि। अगर इस कदम के असर का आकलन करें तो फौरी तौर पर कहा जा सकता हे कि पीएम का जो उद्देश्य था वह गलत बयानी थी। यहां पेश हैं तीन उदाहरण। पहला कि आतंकवाद को धन मिलना बंद नहीं हुआ है वह बदस्तूर जारी है और नागरोटा में आतंकी हमले इसका सबूत है, दूसरा पुराने नोटों को ब्दलने और नये नोट लाने का एक नया रैकेट शुरु हो चुका है और तीसरा कि करप्शन की राहें खुल गयीं हैं।
‘डिमोनेटाइजेशन’ यानी विमुद्रीकरण की घोषणा के बाद सरकार और रिजर्व बैंक ने कई बार रुपये बदलने और रुपये बैंकों से किनालने के तौर तरीकों में संशोधन किया। अब प्रधानमंत्री जी लगातार कह रहे हैं कि जनता थोड़ा बर्दाश्त करे। लेकिन खुद जनता की पीड़ा को सुनने और उस पर विचार करने के मूड में नहीं दिखते। बीसवीं सदी के विख्यात समाज शास्त्री माइकल फूको के मुताबिक ‘शासित समुदाय की व्यक्तिनिष्ठता सशर्त होती है। नव उदार शासन कभी भी एक गंभीर संकट को युं ही नहीं जाने देता।शासन कभी भी जनता को आर्थिक तंगियों से मुक्त नहीं करता और ना अपने नियंत्रण से बाहर जाने देता है।’ अतएव ऐसा लगता है कि वर्तमान संकट को मोदी जी अपना शिकंजा कसने के लिये इस्तेमाल करें और परोक्ष या प्रत्यक्ष तरीके से लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति , आर्थिक स्थिरता और सामाजिक समरसता को बदलना चाहते हों। संविधान की धारा 21 के अनुसार देश के हर नागरिक को जीने ,आजादी और जविका का अधिकार है। मोदी बैंक में जमा रुपयों पर अनावश्यक अंकुश लगाकर यह अधिकार छीन रहे हैं। नोटबंदी या विमुद्रीकरण के बाद के हालातों ओर मिल रही खबरों से ऐसा नहीं लगता कि प्रधानमंत्री जी ने अचानक यह निर्णय लिया और सरकार तैयार नहीं थी। सबकुछ सोचे समझे गये तरीके से किया गया है और उसका उद्देश्य कुछ दूसरा लगता है।
0 comments:
Post a Comment