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Tuesday, December 27, 2016

एंटी करप्शन आंदोलन बेअसर क्यों हो जाता है

एंटी करप्शन आन्दोलन बेअसर क्यों हो जाता है 

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के 86 प्रतिशत नोटों का अचानक चलन बंद कर दिया. शुरू में जनता को बताया गया कि कालेधन को ख़त्म करने के लिए यह कदम उठाया गया है. जनता ने तालियाँ बजायीं.नोट बंदी से होने वाली परेशानियां डेढ़ महीने से ज्यादा दिनों से कायम हैं और इसके साथ ही घटता  जा रहा है उसके पक्ष में कायम  शुरुआती उत्साह . इसके स्वरुप और इसे लागू किये जाने के तौर तरीकों पर तीखी टिप्पणियाँ की जाने लगीं हैं. इसके बावजूद आबादी का एक बड़ा भाग इसके इरादों को सही बता रहा है. लोग इस बात से सहमत हैं कि इससे अर्थ व्यवस्था को आघात लगा है. लेकिन विपक्ष की आलोचनाओं को सुनाने के लिए लोग तैयार नहीं हैं. बहुत लोग प्रधान मंत्री को एक मौका देने के पक्ष में हैं ताकि वे कला धन ख़त्म करने के अपने दावे को साबित कर सकें. इसका कारण है कि हम एक शासन  के चश्मे से भारत को देखते हैं. हमलोग लोकतंत्र और शासन  में फर्क करने की काबिलियत गवां चुके हैं. इसलिए हमारी नज़र में कालाधन देश की सबसे बड़ी बुराई है. जबकि शासन  के तर्क से बाहर काले धन की कोई अहमियत नहीं है. इसे समझने के लिए एक सरल सवाल है कि सही में कला धन है क्या? यह किसके लिए काला है? यक़ीनन यह धन अर्थ व्यवस्था से छुपा नहीं है. यानि जहां इसे निवेशित किया गाया है या जहां इसका उपयोग हो रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ केवल 6 प्रतिशत कला धन ही नगदी के रूप में जमा है. यह धन समाज से भी नहीं छिपा है.  सही में कला धन क्या है इसका सीधा उत्तर है कि वह धन जो शासन की निगाहों में नहीं है. हालाँकि सब जानते हैं कि यह है और इसका उपयोग हो रहा है. शसन की निगाहों में कला धन वह सारा धन है जो देश के भीतर आर्थिक व्यापार में लगा है , यह करोडो रूपए के काम में भी हो सकता है और सौ रूपए की नगदी लें दें में भी हो सकता है. अब यह शासन पर निभर करता है कि वह एक को नजर अंदाज़ कर दे और दूसरे को सजा दे दे. उसकी यह निर्भरता उसके राजनीतिक झुकाव के अनुरूप होती है. वह चाहे तो किसी बड़ी संस्था के अरबों रूपए को विकास के नाम पर यूँ ही ताल दे और चाहे तो छोटे व्यापार पर छापे मार दे. अब कोई पूछ सकता है कि समस्या क्या है , शासन का ही नजरिया क्यों नहीं अपनाया जाय?  दरअसल हमने शासन को बादशाह बना दिया है. लोकतंत्र में शासन की परिभाषा है , जनता द्वारा, जनता के साथ और जनता के लिए. लेकिन शासन में यह दूसरा हो जाता है. यहाँ वह एक ऐसी व्यवस्था बन जाता है जिस पर ऊँगली उठाना गलत माना जाता है. यहाँ “ भक्ति” की अपेक्षा की जाती है. भारत में काले धन के प्रति जनमत के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि हमने शासन की तरह इसे देखना आरंभ कर दिया है और जनता तथा सिविल सोसाइटी के द्रिस्तिकों को त्याग दिया है. इसके लिए राजनितिक वर्णपट पर देशभक्ति की कलई कर दी गयी है. अब जब इस अवस्था से वशीभूत जन जब शासन को ही राष्ट्र समझने लगता है तो अँधेरे में दिखाई पड़ने वाले  काल्पनिक भूत की तरह  कालाधन उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा दिखने लगता है. इसलिए वे कहते हैं कि राष्ट्र हित में वे नोट बंदी से होने वाली तकलीफों को बर्दाश्त कर सकते हैं. सवाल इसे लागू किय जाने के तरीके पर उठता है तो बड़ी चालाकी से इसे राजनीती का रंग दे दिया जाता है. 

अब सवाल उठता है कि इसे क्यों कर अलग से देखा जाय? सरल तरीका है कि इसे जनता और उसकी आर्थिक गतिविधियों के सन्दर्भ में देखाजाय . इस तरह आर्थिक गतिविधियों की हम पड़ताल कर पायेंगे. इसमें दो तरह कि गतिविधिया होती है. एक तो धन जमा करने कि. जो बड़े उद्योगपति और व्यापारी विभिन्न तरीकों से करते हैं , रिश्वतखोरी वगैरह से भी धन संग्रह किया जाता है. आम आदमी के लिए यह धन भी अर्थ व्यवस्था में इस्तेमाल होता है. एक दूसरे तरह की भी आमदनी है जिस के जरिये जमा धन सरकार के अधिकार क्षेत्र से बहार है वह है मजदूरों, छोटे छोटे व्यापारियों और इसी तरह के लोगों द्वारा कमाई गयी दौलत, यह दौलत अपने ऐकिक स्वरुप में इतनी छोटी होती है कि इसपर निगाह जाती ही नहीं. लेकिन अपने समन्वित स्वरुप में यह भी अघोषित धन है. इस मोड़ पर यह सोचने की बात है कि 1970 से अबतक जितने भी एंटी करप्शन आन्दोलन हुए सबने उग्र राष्ट्रवादी, सांप्रदायिक और आरती रूप से दक्षिण पंथी ताकतों को मज़बूत किया है. शुरू में यह आन्दोलन कालेधन के प्रति काम काज करने वालों के गुस्से से शुरू होता है और यूँही  ही ख़त्म हो जाता है. नोट बंदी  के वर्तमान आन्दोलन का हश्र भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है.        

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