2016 : जब सच नेस्तनाबूद हो गया ?
ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने “ पोस्ट ट्रुथ” को सन 2016 का शब्द घोषित किया है जबकि मरिअम वेबस्टर डिक्शनरी ने “ सरीअल” को इस वर्ष का शब्द घोषित किया है. इन दोनों शब्दों के अर्थ “उस स्थिति कि ओर संकेत करते है जिसमें जनमत तैयार करने के लिए वस्तुनिष्ठ सच्चाई का असर कम होता है और भावनाओं या व्यक्तिगत आस्था का प्रभाव ज्यादा होता है. “ जबकि राजनितिक विमर्श के केंद्र में सदा सच्चाई रहती थी और इसी के बिना पर जनमत का स्वरुप बनता था. भावनाओं और व्यक्तिगत आस्था का इसमें स्थान नहीं होता था. लेकिन 2016 इससे अलग रहा. इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटें. वहाँ से हालात को देखें जहां हमने अरब वसंत की कामयाबी से उतपन्न आशावाद को खडा हो कर देखा था. वह मिस्र का एक इन्जीनियर था और गूगल में काम करता था. उसने फेस बुक पर एक पेज बनाया जिसका नाम था “ वे आल आर खालिद सईद “. एक तरह से यह पेज मिस्री पुलिस के हाथो प्रताड़ित लोगों को श्रधांजलि देने की जगह बन गयी. जो जनमत भिखरा हुआ वह एकजुट हो गया और कुछ हफ़्तों में उसने बिना खून बहाए सत्ता को उलट दिया. हालांकि इस आन्दोलन के औपचारिक स्वरुप का नेता गोनिम था लेकिन उसने भी इसे वेब पर एक सहयोगी परियोजना का नाम दिया. उसने कहा “ हमारा आन्दोलन विकिपीडिया की तरह है. सहयोग करने वाले का नाम कोई नहीं जानता पर सब सहयोग कर रहे हैं. कोई घोषित नेता सामने नहीं था.” पञ्च साल पहले तक सोशल मीडिया लोकतंत्र और व्यक्तिगत अधिका के ताकतवर हथियार था. गोनिम के फेस बुक पेज पर खालिद सईद की क्षत विक्षत लाश की तस्वीर ने हजारों लोगों को विद्रोही बना दिया. जर्मन मार्क्सवादी दार्शनिक वाल्टर बेंजामिन के शब्दों को अगर माने तो यह एक तरह से पूजनीय बनने की हसरत का पूरा होना था . बेंजामिन के जमाने में एक लेखक था और हजारों पाठक थे. अकबर इलाहाबादी ने कहा था जब टॉप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो. दोनों स्थितियों में एक तरह नियंत्रण था पर ये अगर आज होते और देखते कि लाखों लोग जेब में एक छोटा उपस्कर लिए घूम रहे हैं और जब चाहा जैसा चाहा पोस्ट कर दिया जो पलक झपकते करोडो लोगो तक पहुँच गया. लोगों तक पहुँचने उसे पढने और आगे बढाने की गति अबाध है. पांच वर्ष की अवाधि निकल गयी और 2016 एक ऐसा साल सामने आया जब इन्टरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग मिथ्या और “ ज़हरीले “ अफवाह फैलाने के लिए होने लगा. अगर ध्यान से देखें तो इन दिनों सोशल मीडिया और यहाँ तक कि समाचार मीडिया का उपयोग ऐसी सनसनी पैदा करने के लिए किया जा रहा है कि उसके प्रभाव में लोग हालात को अपनी कल्पना से भी ज्यादा खराब समझने लगें. नतीजतन लोग घातक निर्णय लेने लगे हैं. झूठे समाचारों को आदर्श का लिहाफ बना कर फैलाया जा रहा है. दुनिया का कोई भी क्षेत्र इससे बचा नहीं .अपने देश में करेंसी से लेकर नमक तक इसके शिकार हुए। हाल के दिनों में हालात यहां तक बिगड़े कि कई मौकों पर यूनेस्को और रिजर्व बैंक तक को सामने आकर स्थिति साफ करनी पड़ी.
भारत में मिथ्या समाचारों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही रहा है. इसी देश में गांधी को बुद्ध के समकक्ष , इंदिरा जी को दुर्गा और मोदी को अवतार बनाने का प्रयास होता रहा है। मिथ्या समाचारों की चपेट में अच्छे पढे़ लिखे लोग भी अा जाते हैं . वे प्रतिगामी विचारों को सहन नहीं कर सकते. दूसरों की गलतियाँ गिनाने लगते हैं.
मिथ्या समाचार ( फेक न्यूज ) संकट बनते जा रहे हैं. 2011 के तकनीक की खूबियों का ख्वाब 2016 के आते आते एक दानव बन चुका है. इन्टनेट से झूठी खबर फैलाने वालों की फ़ौज दिन रात लोगों की भावनाओं को कुरेद कर उन्हें सच्चाई के बारे में गलत फैसले करने के लिए उकसा रही है. लोकोपकार का यह साधन व्यक्तिगत स्वार्थ में बदल गया है. अरब वसंत की विजय ने कई पराजयों के दरवाजे खोल दिए. फिर भी सब कुछ नहीं ख़तम हुआ है , बेशक मिथ्या और वास्तविकता के बीच उतना ही अंतर दिख रहा है जितना 1971 के युद्ध में भारत के विजय के सबूत और सर्जिकल हमले की सूचना की उपलब्धता और उसकी हकीकत के बीच है.
उम्मीद रखनी चाहिए कि कल से शुरू होने वाला वर्ष 2017 सत्य के अफवाहों के नेस्तनाबूद हो जाने की अफवाहों को गलत बताने की दिशा दिखाएगा. अगर धार्मिक रहस्यवाद हमें कुछ सिखाता है तो हमें मुतमईन रहना चाहिए कि समाप्ति शुरुआत की पहली सीदी है , मौत पुनर्जन्म की व्याख्या भी है. हमें उम्मीद नहीं छोडनी चाहिए. लेकिन सावधान होना इसलिए ज़रूरी है कि नए शब्दों के चलन में आने का अर्थ सोच में परिवर्तन भी है.
Friday, December 30, 2016
2016: जब सच नेस्तनाबूद हो गया
Posted by pandeyhariram at 4:41 PM
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