सहयोगी संघवाद के नाम पर
हमारे देश में सहयोगी संघवादी शासन व्यवस्था है , इस व्यवस्था के तहत सभी राज्यों के अपने अधिकार हैं और उसमें केंद्र हस्तक्षेप नहीं कर सकता है . लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी हो रहीं हैं जिससे लगता है कि केंद्र सरकार दबावमूलक संघवाद की ओर कदम बढ़ा रही है. गत 30 नवम्बर को नीति आयोग के कुछ वरिष्ट सदस्य कोलकता आये थे. उन्होंने राज्य सरकार पर यह दबाव डाला कि राज्य में कृषि सुधार होना जरूरी है. वार्ता का विषय केवल यही रहा कि जमीन के लीज के कानून और कृषि सुधार दोनों केंद्र सरकार के नीति निर्देशों के अनुरूप हो. यह एक यह एक ऐसा वाकया है जिसका साफ़ मतलब यह होता है कि केंद्र सरकार के मनोनुकूल राज्य कृषि उत्पादन विपणन समिती कानून में सुधार किया जाय . यह कथन खुद में हैरत में दाल देने वाला है. भारतीय संविधान के मुताबिक़ कृषि , भूमि और ताज्य स्तरीय विपणन राज्य का विषय है और इसमें केंद्र सरकार और निति आयोग जैसी केन्द्रीय संस्थाएं इसमें तबतक हस्तक्षेप या राज्य सरकार को इस विषय पर तैयार नहीं कर सकती हैं जबतक खासतौर पर उनसे न कहा जाय. इसी तरह राज्य सरकारों को भी केंद्र के काम में हस्तक्षेप करने का हक़ नहीं है.
जहां तक नीति आयोग का सवाल है वह कोई संविधानिक संस्था नहीं है ताकि वह राज्य की अधिकार सूची पर विचार कर सके. वह केंद्र सरकार द्वारा गठित संस्था है और राज्य के अधिकारों की अनुवर्ती सूची में से कुछ विदुओं को केंद्र के निर्देशानुसार अलग कर और उसपर काम करना सही नहीं है. पश्चिम बंगाल के कृषि मंत्री पुर्नेंदु बसु ने निति आयोग के सदस्यों को बताया कि उनकी सरकार राज्य में भू राजस्वा कानून को लागू करने का विरोध करती है. श्री बसु ने आयोग को बताया कि उनके राज्य में कृषि बिल्कुल सही है और इस बारे में केंद्र को बताने की कोई जरूरत नहीं है. आखिर क्यों केंद्र सरकार टेक्नोक्रेट्स की जमात से बात करने के लिए बाध्य कर रही है.
श्री बसु के इस सवाल का उत्तर यही है कि यह दबाव मूलक संघवादी शासन का एक स्वरुप है जिसे केंद्र सरकार अपना रही है. अलबत्ता उसने जन संपर्क के दिखावे के लिए सहयोगवादी शासन व्यवस्था का गिलाफ चढ़ा दिया है. यहाँ दबाव मूलक माडल को समझना जरूरी है. विभिन्न राज्यों में कृषि उत्पादन विपणन समिति क़ानून का विकास इस उद्देश्य के लिए किया गया कि अपना उत्पादन बेचने में किसानो का दलालों और सूदखोरों द्वारा शोषण न हो सके. विपणन केन्द्रों में उत्पादों को बेचने के समय किसानो को दिक्कत ना हो. वैश्वीकरण और बाजारवाद के विकास के पश्चात अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के बाजार में उतरने के फलस्वरूप भारतीय बाज़ारों पर कार्पोरेट क्षेत्रों का दबाव बढ़ता जा रहा है. वे चाहते हैं कि कृषि बाजार भारत व्यापी हो जाए और वे सीधा किसानों से धंधा करें और उन्हें वही बोने के लिए मजबूर करें जो वे चाहते हैं. विभिन्न राज्यों के कृषि उत्पाद समिति कानून ऐसा करने की अनुमति नहीं देते हैं. कई राज्यों का मानना है कि इस क्षेत को कारपोरेट सेक्टर के लिए खोलने का अर्थ है कि कृषि बाज़ार को कारपोरेट नियंत्रण में सौंप देना है. सारी फाँस यहीं पर है. केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव दाल रही है कि वह अपनी उत्पाद विपणन नीति को बदले. अक्टूबर महीने में नीति आयोग ने उन कई राज्यों सूची तैयार की थी जहां किसानो के पक्ष में सुधार किये गए हैं. निति आयोग ने पाया कि दुनिया भर में ऐसे सुधार किसानो के पक्ष में माने जाते हैं. अब केंद्र सरकार ने राज्यों को इस बात के लिए तैयार करना शुरू किया कि क़ानून में बदलाव करें . कई राज्यों ने इसे नहीं माना , उनका मत था की यह किसानो के हित के अनुरूप नहीं है. इसमें हैरत नहीं है कि नीति आयोग की सूची में जो पांच राज्य शीर्ष पर हैं वे भा ज पा शासित राज्य हैं. पश्चिम बंगाल और अन्य कई राज्यों में जो कानून हैं वह, नीति आयोग के मुताबिक उतने ज्यादा किसानो के हित में नहीं हैं. अब नीति आयोग चाहता है कि उसके अनुसार ये राज्य अपने किसान क़ानून में सुधार करें. नीति आयोग की उस सूची में येयार रैंकिंग का कोई मतलब नहीं है. इसका लब्बो लुआब यह है कि जो राज्य केंद्र के सामने जितना झुकेगा उसे उतनी ज्यादा केन्द्रीय सहायता मिलेगी. यह एक तरह का भयादोहन है. इस तरह की क्रियाएं प्रतिनिधिमूलक शासन व्यवस्था के विपरीत है.
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