रिजर्व बैंक की स्वयत्तता पर आघात
नोटबंदी की आपाधापी में रिजर्व बैंक की भूमिका निगाहों से ओट हो गयी थी। यह बद किस्मती है कि रिजर्व बैंक की आजादी पर हमला हुआ और हमलावर कोई दूसरा नहीं खुद सरकार है। वह सरकार जिस पर इसकी आजादी की हिफाजत की जिम्मेदारी है ओर कुछ ही दिन पहले इसकी आजादी को कायम रखने के लिये कानून भी लागू किया था। सरकार ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को यह भार सौंपा कि वह मौद्रिक नीति की कमेटी का गठन करे और मुद्रा स्फीति के नियंत्रण के लक्ष्य तैयार करे। मौद्रिक नीति तैयार करने के लिये जो कमेटी बनाने का सुझाव दिया गया था उसमें 3 रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि होने थे और तीन सरकार के। नीति का निर्धारण मतदान से किया जाना था और उसमें गवर्नर को भी मत देने का अधिकार था। यह रिजर्व बैंक की आजादी तथा स्वायत्तता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का प्रतीक था। यह प्रतिबद्धता तब और सशक्त हो गयी जब मौद्रिक नीति के ढांचे पर वित्त सचिव के हस्ताक्षर हुये। काश यह सब कार्यरूप में बदलता। अभी इन दस्तखतों की स्याही नहीं सूखी थी कि केंद्र सरकार ने हजार तथा पांच सौ के नोट के चलन बंद कर यह जाहिर कर दिया कि वो सब बातें हैं और बातों का कोई मूल्य नहीं होता। मौद्रिक नीति के नियामक सरकार तय करेगी। हालांकि धारा 24 में यह कहा गया है कि नोट चलाने या बंद करने का निर्णय सरकार का होगा पर यह रिजर्व बैंक की सहमति से होगा उससे परामर्श के बाद होगा। क्योंकि हर नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर के दस्तखत होते हैं और उस नोट पर लिखी रकम के भुगतान की गारंटी होती है। लेकिन सरकार ने इसका कोई लिहाज नहीं किया। यह स्वाबाविक न्याया है कि अगर एक दस्तावेज पर किसी के दस्तखत होंगे तो उसके हर श्वेत श्याम के लिये वही जिम्मेदार होगा। मसलन, आप एक चेक सही करके जारी करते हैं ओर चेक से भुगतान नहीं मिलता है तो आप जेल तक जा सकते हैं। अगर बैंक जान बूझ कर बुगतान नहीं करता तो वह बी दंडित हो सकता है। लेकिन यहां सरकार ने इतना बड़ा कदम उठाया ओर रिजर्व बैंक की गारंटी का लिहाज तक नहीं रखा। अब नोटों के चलन बंद किये जाने के मामले में क्या सरकार ने रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26 के तहत स्वीकृति ली थी। यही नहीं , कानूनन रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल में 14 गैर सरकारी निदेशक होने चाहिये लेकिन फिलहाल वहां केवल चार निदेशक हैं जिनमें एक रिटायर्ड अफसर है और दूसरा गुजरात के पूर्व मुख्य सचिव हैं। यहां सबसे बूझ सवाल है कि 6 सरकारी और 4 गैर सरकारी निदेशकों ने अपनी जिम्मेदारी छोड़ दी थी। या, केवल वे रबर स्टाम्प की भूमिका निभाते हैं। जहां गया ठप्पा मार दिया। लाल कृष्ण आडवाणी ने आपात काल के दौरान कहा था कि ये अफसर ऐसे लोग हैं जिन्हें झुकने को कहा जाता है तो वे लेट जाते हैं। क्या अब भी वैसा ही हो रहा है। क्या ये मंडल जो बात कही जाती है और जो लाभ गिनाये जाते हैं उस पर विचार नहीं करता बस केवल जो कहा जाता है उसे मान लेता है। यह नहीं सोचा गया कि अर्थ व्यवस्था से 86 प्रतिशत रुपया रद्द कर दिये जाने का क्या नतीजा होगा और वह भी वैसी अर्थ व्यवस्था का जिसके अनौपचारिक क्षेत्र में 98 प्रतिशत कारोबार नगदी में होता है।
खबरों में कहा गया था कि नोटों का चलन बंद करने से पहले रिजर्व बैंक की आपात बैठक हुई थी और उस बैठक में सरकार के इस कदम की अनुशंसा ली गयी थी। लेकिन इस कदम के परिणामों को देखते हुये लगता है कि कानून को केवल पालन किया गया है कानून के इरादे और असके दर्शन को नहीं माना गया है। अब तक जो हालात दिख रहे हैं सबसे तो ऐसा लगता है कि बस सरकार ने तय किया कि यह करना है और हुक्म दिया कि इस पर दस्तखत करो और आनन फानन में दस्तखत ले लिये गये। वरना क्या बात है कि नोटबंदी के आज लगभग 40 दिन हो गये और हालात जरा भी नहीं सुदारे हैं। ए टी एम के सामने की कतारें छोटी केवल इस लिये हुई हैं कि नोट निकालने पर पाबंदियां हैं बैंक में भी यही हाल हैं। एक सप्ताह में एक बार फकत 24 हजार निकाला जा सकता है। पच्चीसवें हजार के लिये हफ्ता भर इंतजार करें। इससे साफ जाहिर है कि बैंक तैयार नहीं था। उससे जबरन मंजूरी ली गयी है। यह कदम न केवल जल्दीबाजी भारा था बल्कि योजना भी बहुत अच्छी नहीं थी। रिजर्व बैंक ने सरकार की हां में हां मिला कर बैंक की स्वायत्तता के इतिहास में धब्बा लगाया है।
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