व्यंग्य : शौक घूमने जाने का
अगर आप इन दिनों बीमार हैं या किसी जरूरी काम से अपने महानगर से बाहर जाना चाहते हैं तो यह मान लें कि आपको ट्रेन में आरक्षण नहीं मिलेगा। क्योंकि यहां के धरती पुत्रों में घूमने की जो असीम ललक है उसके कारण सारी ट्रेनें फुल। हमारे सम्पादक जी ने आदेश दिया लस्टमानंद जरा स्टेशन की तरफ भी जांको। लिहाजा अपने वहां गये। चारो तरफ भीड़, मूढ़ी और पकौड़े के गठ्ठर तथा उ
उंकड़ू बैठे किशोर की भांति स्टेशन पर सुस्ताते बैकपैक। यह फौजियों के पिठ्ठुओं से बड़ा और अजीब किस्म का होता है मानो जैसे कोई बच्चा मल निस्तारण के लिये उंकड़ू बैठा हो। चारो तरफ इस यात्रा में देखी जाने वाले स्थानों की चर्चा का आनंद और पिछली यात्रा के तजुर्बात का बतरस। चारों तरफ अबाल वृद्धों का झुंड। इनहें देख कर शहर की ‘दुग्गोपूजा’ का बुनियादी उत्साह आंखों के सामने तैरने लगा। ऐसा लगता है पूजा हमारे शहर के धरती पुत्रों के रियाज और उस यात्ता के लिये दैवी शक्ति के आधान का अवसर होता है। सारे अबालवृद्धपंडाल हॉपिंग और कभी कविराजी, बिरियानी कबी फुचका ,कभी मसाला मूढ़ी वगैरह का भक्षण-विक्षण करते रात रात भर ‘घूरने’ का अभ्यास। रोजना के कार्यक्रम तथा खानपान से एकदम अलग मानो मां दुर्गा उनके पेट के अम्मॉल (एसिडिटी) को खत्म कर देंगी। और आपको यकीन ना हो ऐसा होता भी है। किसी कलकतिया धरती पुत्र को देखें दुर्गापूजा से सर्दियों के उतरने तक वह एसिडिटी की शिकायत नहीं करता। मानों दुर्गापूजा इन यात्राओं का पूर्वाभ्यास हो। इसके बाद वे निकल पड़ते हैं बेड़ाते। अन्य लोगों से खुद को सुपीरियर समझते हुये वे जहां जाते हैं वहां की संस्कृति में मिल कर उसका आनंद उठाने की खुशफहमी में अपनी सुपरियरीटी का अहं नहीं त्याग सकते हैं। ये एक तरह से हाइपर टूरिस्ट होते हैं। इनकी तैयारी लम्बी होती है। ये फकत बैकपैक लेकर निकल पड़ने वाले मानुष नहीं हैं। ये लोग बेड़ाते जाने की तैयारी कुछ इस तरह करते हैं मानों किसी युद्दा की रणनीति बना रहे हों। ग्रुप में बैठ कर पहले गंतव्य का चयन किया जाता है। फिर यात्रापथ तय होता है। फिर जहां जाना है वह के लिये यात्रा के सादान तय किये जाते हैं कि ट्रेन से जायेंगे या बस से। सारे बंधु बांधवी निकल पड़ते हैं। जहां जाते हैं वहां की स्पेशलिटी की तस्वीरें ली जाती हषैं और उनहें फेसबुक पर डाला जाता है। इन तस्वीरों में बाव कुछ ऐसा होता है मानों वे यह दिखाना चाहते हैं कि देख क्या मजे हैं। ट्रेन में इनके मजे देखिये। स्लीपर की सीट पर अखबगर और उस पर मूढ़ी की उपत्यका जिसकी तराई में अपने स्वभाव से डराती हरीमिर्च और नमक की घेराबंदी। पूरा डब्बा एक खास किस्म की चर्चा से गुलजार। ये टिपीकर टेरिबल टूरिस्ट हैं अपनी सुविधा के लिये इनहें टी3 कह सकते हैं। डब्बे में इनके सदस्य लगातार चहलकदमी करते नजर आरयेंगे और लाजिमी है कि आपका पैर उनके तलवे तले आ जाय तो झट से हाथ को ललाट तक ले जायेंगे यानी उन्होंने इस कृतय के लिये क्षमा मांग ली आपने क्षमा किया या नहीं यह आपकी बला से। उनके दिलोदिमाग में बिहार के लिये एक अजीब धारणा होती है। जब ट्रेन बिहार से गुजरती है तो एकदम चौकन्ने हो जाते हैं। अब ट्रेनों की मजबूरी है कि पहाड़ पर जाने वाली हर ट्रेन बिहार से गुजरती है और इन टी 3 लोगों में अजीब किस्म का भाव आता जाता रहता है। ये टी3 लोगों में एक साथ सर जगदीशचंद्र बोस, सुभाष बाबू और सत्यजीत राय की आत्मा सक्रिय रहती है और हर बिहारी इनहें एंटी सोशल और बेवकूफ नजर आता है। इन्हें सफर में खास कर ट्रेनों में निजी वार्ता करने का अजीब शौक होता है। ऐसा लगता है कि घर से दूर घर का वजूद भीतर करवट ले रहा है। सबसे उनकी अपनी धरती है जहां सबसे अच्छी व्यवस्था और बंदोबस्त हैं।
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