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Wednesday, December 7, 2016

करप्शन के नये अंकुर

करप्शन के नये अंकुर 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को निम्न आय समूह लोगों को ‘उपदेश’ दिया कि यदि उन्होंने कालाधन के धनासेठों के रुपयों को अपने जनधन योजना खातों में जमा किया है तो उसे निकालें नहीं। यह एक ऐसी बात है जिससे संभव है कि भविष्य में सामाजिक अशांति फैल सकती है। यही नहीं इससे यह भी लगता है कि कुछ लोगों ने कालाधन एकत्र कर रखा है उससे बड़ी संख्या के साधनहीन लोगों को भारी लाभ मिलेगा।लेकिन आंकड़े कुछ दूसरी बात कह रहे हैं। देशभर में 30 नवम्बर तक 25.78 करोड़ जधन योजना खातों में 74,321.55 करोड़ रुपये जमा हुये। यानी  हर खाते में औसतन 2882.91 रुपये जमा हुये। यह इतनी बड़ी रकम नहीं है कि इसके बल पर आर्थिक तौर अशक्त लोग ताकतवरो को अंगूठा दिखा सकें। यही नहीं , आंकड़ों से पता चलता है कि हर जनधन योजना खाताधारक ने दूसरों के कालेदान को सफेद करने में मदद की है। सरकार के अनुसार जनधन योजना में एक्बार में 50 हजार तक रुपये जमा करने वालों से यह नहीं पूछा जायेगा कि रुपये आये कहां से।  30 नवम्बर तक 5.89 जनधन खातों शून्य रकम जमा थी। बेशक कुछ ही लोग थे जिन्हें हठात 50,000 रुपये मिल गये। यहां अनगिनत लोगों के लिये प्रधनमंत्री की अपील कोई मायने नहीं रखती है। दूसरी ओर इससे यह संदेश जाता है कि गरीबों के माध्यम से अमीरों की दौलत का रंग बदला जा रहा है। वैसे ही अमीरों के प्रति गरीब वर्ग  में परोक्ष गुस्सा या कहें कि अंतर्निहित गुस्सा होता है। वर्ग से जुड़ी सियासत में सदा से एक नीतिपरक आभास रहा है। इसी नीतिपरक आभास के जरिये प्रदानमंत्री जी ने लोगों को एक संदेश दिया है जिसका नतीजा परेशान करने वाला हो सककता है। यह संदेश केवल जनधन योजना के खाता धारकों के लिये ही नहीं है बल्कि समग्र गरीब वर्ग के लिये है। इससे यह मानस बनेगा कि गरीब लोग अमीरों का पैसा , चाहे वह जनधन खाते में जमा हो  या किसी और खाते में , लौटायें नहीं। इससे गांवों में एक अजीब प्रकार की रहस्यमय स्थिति बन रही है। कृषि से हुई आमदनी आयकर से मुक्त हे अब इसका कोई अर्थ नहीं है कि एक किसान का जनदान खाता है या सामान्य खाता। अब ऐसे में कोई किसान लाखों पुराने नोट अपने खाते में डाल सकता है और कह सकता है कि यह उसकी कृषि से हुई आय हे। इस स्थिति में कुछ इेसे भी किसान हो सकते हैं जो कालाधन जमा करके रखे लोगों से कहें कि उनका रुपया वे(किसान) जमा कर देंगे ओर वह सफेद हो जायेगा , यानी जमा कालेधन को ‘रीसाइकिल’ करके सफेद बना दिया जायेगा। इसका भयानक प्रभाव पड़ सकता है। क्योंकि जिन लोगों के पास काली दौलत है उनमें से अधिकांश अमीर, प्रभावशाली और ताकतवर लोग है। ऐसे लोग सफेद धन करने का वादा करके जमा किये रुपयों की वसूली के लिये बलप्रयोग भी कर सकते हैं। एक ऐसे देश में जहां पंचायते लड़के लड़कियों को अपनी मर्जी से शादी कर लेने पर मौत की सजा सुनाती हैं या दलितों पर भयानक जुल्म किये जाते हैं वहां क्या यह संभव नहीं है कि पैसों की वसूली में सरकारी तंत्र अमीरों का साथ दे। नोटबंदी से कई तरह की अफवाहों को बल मिला है। इसमें एक यह भी है कि शहरों के कालाधन के जमाखोर अब इसे सफेद करने के लिये गांवों का रुख कर रहे हैं और किसान उनकी दौलत को जमा करने के लिये आगे आ रहे हैं। यहां यह भी बात उनके भीतर पैट सकती है कि रुपये लेकर रख लो वे क्या करेंगे। लेकिन यहां थोड़ा ब्रम है। जहां तक बात पता चली है वह है कि कुछ किसान जरूर ऐसा कर रहे हैं पर शहरों में कालाधन जमा करने वालों और वैसा करने वाले किसानों के बीच गांव का कोई अत्यंत प्रभावशाली तथा दबंग आदमी बीच में है। ऐसा नहीं है कि कोलकाता का कोई सेठ बिहार के किसी गांव में या पूर्वी उत्तरप्रदेश के किसी गांव में जाकर हठात किसी किसान से कहे कि वह उसका छिपाया गया धन कमीशन लेकर सफेद कर दे। ऐसा नहीं होता है। इसके विपरीत प्रधानमंत्री के इस प्रोत्साहन से गांवों तनाव बड़ेगा और शहरों में अमीरों से सम्पर्क रखने वाले ग्रामीणों के खिलफ भी शत्रुता पूर्ण भाव का जनम होगा। यह ध्यान रखने की बात है कि गांों में दुश्मनी कई कई पुश्त तक चलती है। शहरी अमीर उन्हीं ग्रामीण लोगों केमध्यम से अपनी रकम जमा करा सकते हैं जो उनपर निर्भर हैं और उनके यहां काम करते हैं तथा गांव में जाति सम्बंधों से जुड़े हैं।  ऐसे लोग अगर जन धन योजना खाते में बिना पूछताछ के एक बार में 50 हजार रुपया जमा करवाते ही हैं तो क्या होगा? कोलकाता जैसे गरीब शहर में एक दरवान या चपरासी के पांच महीनों के वेतन के बराबर है यह रकम। ऐस में क्या कोई अपनी नौकरी का जोखिम इतनी कम राशि के लिये उठायेगा? जन धन खते में ढाई लाख रुपये तक जमा कराने की आजादी है। आय का स्रोत नही पूछा जायेगा लेकिन एसी रकम यदि कोई गरीब किसान शहर के किसी अमीर का जमा करवाता है तो हो सकता है कि थोड़ी देर के लिये उसे खुशी मिले लेकिन उसे भारी कठिनायी झेलनी होगी उस रकम को हजम करने में। हो सकता है उसे गांव भी छोड़ना पड़े। जहां तक खबर है कि ऐसे भगोड़ों को खोजने के लिये गुंडों के कई गिरोह काम भी कर रहे हैं। सेठों के पैसे तो दूर गरीब लोग तो बैंक का पैसा भी नहीं हजम कर सकते। बैंकवाले गुंडे भेज देते हैं। उल्टे अमीर सारी रकम मार कर बैठ जाते हैं। विजय माल्या का दृष्टांत सबके सामने है। चाहे जिस नजरिये से प्रधानमंत्री के इस ‘उपदेश’  का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष यही होगा किक प्रधानमंत्री एक खास किस्म के वर्ग विभाजन को स्वरूप देकर  संघर्ष को हवा दे रहे हैं। यह वर्ग विभाजन वर्गों की क्लासिक राजनीति से अलग है।यह समाज में वर्ग सम्बंधो को पुनर्भाषित नहीं करेगा उल्टे कानून भंग करने वालों से वादा करके मुकरने की प्रवृति को जन्म देगा। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अपराध को अपराध से ढांकने का रिवाज शुरू होगा और इसके खाद पानी से नये तरह के करप्शन का वटवृक्ष पनपेगा।

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