बंगाल में फौज की तैनाती खौफ की सियासत है, सी एम विरोध सराहनीय
हरिराम पाण्डेय
कोलकाता : बंगाल के कई जिलों में सेना की तैनाती पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गंभीर राष जाहिर किया है और एक तरह से यह एक बड़ा मुद्दा बन गया है। यहां तक राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा। मुख्यमंत्री की आपत्ति पर सेना ने कहा है कि यह एक नियमित कार्यक्रम है जिसे हर दो साल पर अपनाया जाता है। ममता जी ने ट्वीट करके कहा है कि बंगाल के जलपाईगुड़ी, अलीपुर दुआर, दार्जिलिंग , बैरकपुर , उत्तर 24 परगना, हावड़ा , हुगली , कोलकाता , मुर्शिदाबाद ,बर्दवान में फौज तैनात की गयी थी, इसके अलावा नवान्न के सामने भी फौज खड़ी गयी थी। पुलिस का कहना है कि जामबनी और खड़गपुर में भी तैनाती थी/ इससे लगता था कि तख्ता पलट जैसी स्थिति आ गयी है। पश्चिम बंगाल पुलिस ने भी अपने आधिकारिक ट्वीट में कहा था कि तैनाती की इजाजत नहीं ली गयी थी। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने बताया कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पंचायत की आय का ब्यौरा भी मांगा था।
इधर बंगाल एरिया के जनरल आफिसर कमांडिंग इन चीफ मेजर जनरल सुनील कुमार यादव का कहना है कि पुलों पर से वाहनों के गुजरने का लेखा जोखा और पुलों के भार वह की क्षमता के आकलन के लिये ऐसा किया गया था ताकि आपात काल में उस भार के फौजी वाहनों को वहां से सरलता से गुजारा जा सके।
मेजर जनरल यादव के इस कथन पर कई सवाल उठते हैं। पहला कि पुलों की भार वहन क्षमता का आधिकारिक विवरण तो पुल बनाने वाली संस्था हुगली रिवर ब्रिज कारपोरेशन (एच आर बी सी) बड़ी आसानी से दे देती और सेना के इंजनियरों को अपने वाहनो की भार क्षमता से उसका आकलन सरल हो जाता। दूसराह प्रश्न है कि गाड़ियों के गुजरने संख्या का आकलन। क्या जनरल साहब बता सकते हैं कि इसका सबसे प्रमाणिक आंकड़ा तो टॉल टैक्स की रसीद है उसे क्यों नहीं मांगा गया कि मामूली पढ़े लिखे फौजियों को वहां तैनात कर दिया गया गुजरने वाले वाहनों की गिनती के लिये। अगर यह भी सही है तो नवान्न के सामने क्या कर रही थी फौज?
जनरल साहब क्या रायफल से निकली गोली की रफ्तार मापने के लिये उसके साथ किसी सैनिक को दौड़ाते हैं क्या? या , कारगिल की ऊंचाई को कुछ सैनिक फीता लेकर मापते हैं क्या? इन दलीलों को सुनकर ही लगता है कि कुछ छिपाया जा रहा है। राज्यपाल महोदय महामहिम केसरीनाथ त्रिपाठॅ ने शनिवार को कहा कि सेना को नीचा नहीं दिखाया जाय। इन सारी बातों से लगता है कि कोई निहित स्वार्थ है जिसे छिपाया जा रहा है। सेना सत्ता का बिम्ब है और उसकी उपस्थिति का अर्थ है कि आम लोगों में दहशत का भाव पैदा करना तथा अगर इस पर कोई उंगली उठाता है तो इसे आलोचना से परे रखने की अपील कर लोगों की बोलती बंद कर देना। कश्मीर से लेकर कोलकाता तक फौज का इस्तेमाल दहशत का बोझिल वातावरण तैयार करना है। एक सवाल यह भी है कि प्राकृतिक आपदा में राहत कार्य के अलावा सेना को जब भी नागरिक आबादी के बीच लाया गया है तो उसका उद्देश्य खौफ पैदा करने के सिव क्या रहा है? चाहे वह असम हो, या कश्मीर हो या कोलकाता। भय या खौफ कपट योजना का सबसे बड़ा हथियार है। इस हथियार की ताकत से आम लोगों से कुछ भी करवाया जा सकता है। चारो तरफ फौज जरूर कोई खतरा है। फौज की आलोचना नहीं करने की सलाह और प्रेशर ग्रुप के जरिये एक मनोवैज्ञानिक धारणा तैयार कर विरोध को मार डालने की साजिश है। अंग्रेजों ने देशद्रोह कानून (सिडेशन लॉ) इसी लिये बनाया। क्योंकि आजादी की लड़ाई में लोग देश के लिये लड़ रहे थे और उन्हें देशद्रोही बता कर फांसी चढ़ा देने से दहशत कायम हो जाती थी और विरोध दब जाता था। ममता जी ने नोटबंदी पर केंद्र का जमकर विरोध किया और उनकी जनता उनका साथ दे रही थी तो बिना बल प्रयोग किये इस समर्थन को मार देने की यह साजिश थी। आपातकाल में भी यही हुआ था और आतंकित करके जनता की आवाज को दबा दिया गया था। सत्ता पहले कुछ संस्थाओं को प्रचार के बल पर अति पवित्र बनाती है और उसी का प्रयोग कर जनता को भयभीत करती है। मोदी जी के शासन में गौर करें कि पहले कालेधन का आतंक शुऱु हुआ और फिर गो रक्षकों के गुडा दलों ने पहले गाय के बहाने लोगों में भय का सृजन किया और उसके बाद नोटबंदी और अब फौज। सबमें एक बात सामान्य है कि विरोध वर्जित है। इंसानी दिमाग अपनी हिफाजत और बचाव के लिये बचपन से ही ट्रेंड होता है इसी लिये वह सदा भय को भांपता रहता है, यह एक स्वत:शोध (ह्यूरिस्टीक) प्रणाली है और भय की आशंका से ही दिमाग खुदबखुद ‘सर्वाइवल मोड’ में आ जाता है। सेना की वर्दी, उसके बारे में बनायी गयीं कहानियां, जनता से जानबूझ कर बनायी गयी उसकी दूरी और उसे आलोचना से परे बना कर सत्ता ने उसे रहस्यमय बना दिया। जिसतरह अंधेरे में भूत का खौफ। भूत भगाने और भूत चढ़ाने के धंधे की तरह अब फौज के जरिये आम जनता को डराया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रेरक या कहें ‘गुरू’ दामोदर विनायक सावरकर और विख्यात इतालवी अधिनायकवादी मेजिनी में बहुत समानता थी। मेजिनी ने धर्म और अध्यातम को मिलाकर एक खास दिशा में इटली को हांकना शुरू किया था और वहां एक ऐसा धार्मिक कट्टरवाद पनप गया था जिसमें सत्ता से जुड़ी संस्थाएं आलोचना से परे हो गयीं थीं। मोदी राज में, गौर करें , कुछ ऐसा ही हो रहा है।
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