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Monday, December 5, 2016

देश प्रेम का अर्थ भक्ति नहीं है

देश प्रेम का अर्थ भक्ति नहीं है
देश भक्ति एक ऐसा सदगुण है जिसका लगभग सब लोग आदर करते हैं साथ ही उसे अपनाते भी हैं। इसके किसी किस्म के दबाव की जरूरत नहीं होती है और ना इसके प्रदर्शन की जरूरत होती  है। लेकिन इधर कुछ दिनों से देश में बदकिस्मती से देशभक्ति को प्रदर्शित करने का रिवाज चल पड़ा है। इसे खुलेआम दिखाने की जरूरत हो गयी है और उसे लेकर तकरार बड़ने लगी है। अब यह समझना जरा कठिन है कि क्यों हाल में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के सिनेमा घरों में फिल्म शुरू होने के पहले राष्ट्रगान बजाने का आदेश दिया। भारत का राष्ट्रगान इतना सटीक और प्यारा है कि यह सबको बांधे रखता है तथा अनेकता में एकता की पहचान है। इसके लिये किसी कानूनी प्रोत्साहन की जरूरत नहीं महसूस होती है। खास खास मौकों पर या स्कूलों कॉलेजों में राष्ट्र गान का गायन लोगों को यह बताने के लिये पर्यापत है कि कोई विशेष कार्यक्रम है और यह कार्यक्रम उनके रोजाना के काम से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसका बिल्कुल स्पष्ट नियम है कि इसे कब गाया जाय और इसका जानबूझ कर उल्लंघन कानूनी तौर पर वर्जित है तथा इसे अमान्य करने वाले को कानून सजा भी दे सकता है साथ ही जिसे इसे अमान्य किये जाने से आात लगा है वह अदालत की शरण में बी जा सकता है। अब इसके बाद भारत जैसे परिपक्व लोकतंत्र में राष्ट्रगान गाने की अनिवार्यता के लिये अदालती आदेश दिये जाने की जरूरत नहीं महसूस होती है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्यों सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमा घरों को इसके लिये अलग से आदेश दिया। लग तो यही रहा है कि कई साल पहले सिनंेमाघरों में राष्ट्रगान बजता था पर अब बंद कर दिया गया। लेकिन यह इसके लिये ही क्यों हुआ यह समझ में नहीं आता। अगर ऐसा ही था तो सभी नाच गानों के कार्यक्रमों के आरंभ में राष्ट्र गान की बाध्यता हो जाती। यही नहीं, विधानसभाओं की प्रत्येक बैठकों और संसद की बैठकों के पहले और बाद में और अदालती कार्यवाही के दौरान भी राष्ट्रगान  बजाये जाने का हुक्म दिया जाता। अबसे लगभग तीन दशक पहले सिनेमा घरों में फिल्म की समाप्ति के बाद राष्ट्र गान बजाया जाता था पर लोग खड़े होने की बजाय जाने की जल्दी में रहते थे इसीलिये संभवत: बंद कर दिया गया। अब दुबारा इसे लागू करने से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सिनेमा घर स्थायी तौर पर देशभक्ति प्रदर्शन का स्थल हैं। राष्ट्रगान का वाणिज्यीकरण और उसका नाट्य रुपांतरण जैसे मामले में  किसी जनहित याचिका पर सार्वजनिक आदेश नहीं दिया जाना चाहिये। ‘सांविधानिक देशभक्ति ’ के भाव की अपील भी उचित नहीं कही जा सकती है।‘सांविधानिक देशभक्ति ’  का एकमात्र मतलब हो सकता है संविधान में निहित मूल्यों का आदर। अब यह ऐसा नहीं है कि इसे न्यायिक आदेश से पालन करवाया जाय या सिनेमा घरों को देशभक्ति के भाव के  प्रदर्शन का मैदान बनाया जाय। अब सुप्रीम केर्ट ने आदेश दिया है तो उसका अनादर नहीं किया जायेगा और ना कोई कर सकता है पर डर ये है कि राष्ट्र गान का सिनेमारों में अनादर ना हो जाय। भारत एक ऐसा देश है जहां राष्ट्रगान पर भी सवाल उठाये जाते हैं और कई बुद्धिजीवी ऐसे मिल जायेंगे जो कहते हैं कि यह इस उद्देश्य के लिये नहीं रचा था गुरुदेव ने बल्कि जार्ज पंच्म के लिये लिखा गया था। हालांकि गुरूदेव रवींद्र नाथ् टैगोर ने बारम्बार इस बात का खंडन किया है। हालांकि इस बात पर अभी कोई ताजा शोध नहीं हुआ है कि राष्ट्रगान को क्योकर जार्ज पंचम से जोड़ा गया। लेकिन टैगोर ऐसा नहीं कर सकते उद्धत राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक मानसिकता पर 1889 में ही उंगली उठायी थी उस समय गांधी का मानस तैयार हो रहा था। गुरूदेव का उपन्यास गोरा जो बीसवीं सदी के आरंभिक काल में प्रकाशित हुआ था उसमें उन्होंने राष्ट्रवाद को व्यापक बनाया था। वे एक क्रांतिदर्शा थे और उनकी रचना को अटेंशन की स्थिति में गाने की मजबूरी बड़ी अजीब लगती है। जहां मजबूरी होगी वहां गरिमा का अवमूल्यन होगा। राष्ट्रगान के गाते ही जब भीतर की राष्ट्रभक्ति उमड़ पड़ती थी वह सिचुयेशन दशेखें और जब जबरन खड़ा रहना आपकी बाध्यता होगा उस स्थिति पर जरा गौर करें। डर ये है कि अब राष्ट्रगान की अवमानना को लेकर लोगों पर हमले होंगे जैसे गो रक्षा को लेकर अक्सर होते सुने जाते हैं। देशप्रेम कोई व्यक्तिवादी तथ््य नहीं है यह सामूहिक चेतना है इसे श्रद्दा के साथ गाया जाना उचित होगा, सरकारी हुक्म पर तो इसकी खुद ब खुद अवमानना होती महसूस होगी। शायद बहुतों को मालूम होगा कि टैगोर ने कहा था कि ‘ मैं जबतक जीवित हूं मानवता पर देशप्रेम की जीत नहीं होने दूंगा।’  राष्ट्रवाद या राष्ट्रप्रेम को बक्ति में बदलने से रोकना जरूरी है। यह एक दुरभिसंधि सा महसूस हो रहा है।

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