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Friday, December 30, 2016

2016: जब सच नेस्तनाबूद हो गया

2016 : जब सच नेस्तनाबूद हो गया ? 
ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने “ पोस्ट ट्रुथ” को सन 2016 का शब्द घोषित किया है जबकि मरिअम वेबस्टर डिक्शनरी ने “ सरीअल” को इस वर्ष का शब्द घोषित किया है. इन दोनों शब्दों के  अर्थ  “उस स्थिति कि ओर संकेत करते है जिसमें जनमत तैयार करने के लिए वस्तुनिष्ठ सच्चाई का असर कम होता है और भावनाओं या व्यक्तिगत आस्था का प्रभाव ज्यादा होता है. “   जबकि राजनितिक विमर्श के केंद्र में सदा सच्चाई रहती थी और इसी के बिना पर जनमत का स्वरुप बनता था. भावनाओं और व्यक्तिगत आस्था का इसमें स्थान नहीं होता था. लेकिन 2016 इससे अलग रहा. इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटें. वहाँ से हालात को देखें जहां हमने अरब वसंत की कामयाबी से उतपन्न आशावाद  को खडा हो कर देखा था. वह मिस्र का एक इन्जीनियर था और गूगल में काम करता था. उसने फेस बुक पर एक पेज बनाया जिसका नाम था “ वे आल आर खालिद सईद “. एक तरह से यह पेज मिस्री पुलिस के हाथो प्रताड़ित लोगों को श्रधांजलि देने की जगह बन गयी. जो जनमत भिखरा हुआ वह एकजुट हो गया और कुछ हफ़्तों में उसने बिना खून बहाए सत्ता को उलट दिया. हालांकि इस आन्दोलन के औपचारिक स्वरुप का नेता गोनिम था लेकिन उसने भी इसे वेब पर एक सहयोगी परियोजना का नाम दिया. उसने कहा “ हमारा आन्दोलन विकिपीडिया की तरह है. सहयोग करने वाले का नाम कोई नहीं जानता पर सब सहयोग कर रहे हैं. कोई घोषित नेता सामने नहीं था.” पञ्च साल पहले तक सोशल मीडिया लोकतंत्र और व्यक्तिगत अधिका के ताकतवर हथियार था. गोनिम के फेस बुक पेज पर खालिद सईद की क्षत  विक्षत लाश की तस्वीर ने हजारों लोगों को विद्रोही बना दिया. जर्मन मार्क्सवादी दार्शनिक वाल्टर बेंजामिन के शब्दों को अगर माने तो यह एक तरह से पूजनीय बनने की हसरत का पूरा होना था . बेंजामिन के जमाने में एक लेखक था और हजारों पाठक थे. अकबर इलाहाबादी ने कहा था जब टॉप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो. दोनों स्थितियों में एक तरह नियंत्रण था पर ये अगर आज होते और देखते कि लाखों लोग जेब में एक छोटा उपस्कर लिए घूम रहे हैं और जब चाहा जैसा चाहा पोस्ट कर दिया जो पलक झपकते करोडो लोगो तक पहुँच गया. लोगों तक पहुँचने उसे पढने और आगे बढाने की गति अबाध है. पांच वर्ष की अवाधि निकल गयी और 2016 एक ऐसा साल सामने आया जब इन्टरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग मिथ्या और “ ज़हरीले “ अफवाह फैलाने के लिए होने लगा. अगर ध्यान से देखें तो इन दिनों सोशल मीडिया और यहाँ तक कि समाचार मीडिया का उपयोग ऐसी सनसनी पैदा करने के लिए किया जा रहा है कि उसके प्रभाव में लोग हालात को अपनी कल्पना से भी ज्यादा खराब समझने लगें. नतीजतन लोग घातक निर्णय लेने लगे हैं. झूठे समाचारों को आदर्श का लिहाफ बना कर फैलाया जा रहा है. दुनिया का कोई भी क्षेत्र इससे बचा  नहीं .अपने देश में करेंसी से लेकर नमक तक इसके शिकार हुए। हाल के दिनों में हालात यहां तक बिगड़े कि कई मौकों पर यूनेस्को और रिजर्व बैंक तक को सामने आकर स्थिति साफ करनी पड़ी.
भारत में मिथ्या समाचारों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही रहा है. इसी देश में गांधी को बुद्ध के समकक्ष , इंदिरा जी को दुर्गा और मोदी को अवतार बनाने का प्रयास होता रहा है। मिथ्या समाचारों की चपेट में अच्छे पढे़ लिखे लोग भी अा जाते हैं . वे प्रतिगामी विचारों को सहन नहीं कर सकते.  दूसरों की गलतियाँ गिनाने लगते हैं.
मिथ्या समाचार ( फेक न्यूज ) संकट बनते  जा रहे हैं. 2011 के   तकनीक की खूबियों का ख्वाब 2016 के आते आते एक दानव बन चुका है. इन्टनेट से झूठी खबर फैलाने वालों की फ़ौज दिन रात लोगों की भावनाओं को कुरेद कर उन्हें सच्चाई के बारे में गलत फैसले  करने के लिए उकसा रही है. लोकोपकार का यह साधन व्यक्तिगत स्वार्थ में बदल गया है. अरब वसंत की विजय ने कई पराजयों के दरवाजे खोल दिए. फिर भी सब कुछ नहीं ख़तम हुआ है , बेशक मिथ्या और वास्तविकता के बीच उतना ही अंतर दिख रहा है जितना 1971 के  युद्ध में भारत के विजय के सबूत और सर्जिकल हमले की सूचना की उपलब्धता और उसकी  हकीकत के बीच है. 
उम्मीद रखनी चाहिए कि   कल से शुरू होने वाला वर्ष 2017 सत्य के अफवाहों के नेस्तनाबूद हो जाने की अफवाहों को गलत बताने की दिशा दिखाएगा. अगर धार्मिक रहस्यवाद हमें कुछ सिखाता है तो हमें मुतमईन रहना चाहिए कि समाप्ति शुरुआत की पहली सीदी है , मौत पुनर्जन्म की व्याख्या भी है. हमें उम्मीद नहीं छोडनी चाहिए. लेकिन सावधान होना इसलिए ज़रूरी है कि नए शब्दों के चलन में आने का अर्थ सोच में परिवर्तन भी है.        

Thursday, December 29, 2016

दावे केवल जुमलेबाजी हैं

दावे केवल जुमलेबाजी हैं 
एक हज़ार और पांच  सौ के नोट के नोटों का चल;अन समाप्त करने की घोषणा करते हुए  प्रधानमंत्री जी   ने कहा था की 30 दिसंबर तक  सब कुछ  ठीक हो जाएगा. आज 30 दिसंबर है और क्या ठीक हुआ यह तो भगवान् ही जनता है. लेकिन उनका यह कदम सही हुआ है अथवा गलत यह भी पता नहीं चल पा रहा है. प्रधान मंत्री जी ने नोट बंदी की घोषणा करते हुए इसका उद्देश्य बताया था कि इससे कला धन खत्म हो जाएगा. उस समय उन्होंने काला धन खत्म करने की दिशा में किये गए अपने प्रयासों को भी गिनाया था.यहाँ तक कि शनि वार को मुंबई में उन्होंने कहा था कि यह अमीरों की तिजोरी में जमा गरीबों का धन निकलने का प्रयास है. दक्षिण पंथी नेता मार्क्स की जुबान बोलने लगा है. 8 नवम्बर को  उनकी बात सुन कर ऐसा लगा था कि प्रधान मंत्री जी ने कला धन के दानव को गले से पकड़ लिया है. उन्होंने जिन क़दमों को गिनाया था वे सुनाने में बड़े प्रभावशाली लग रहे थे. प्रधान मंत्री बोलते बहुत प्रभावशाली है , एकदम किसी मंजे हुए अभिनेता की तरह उनकी डायलाग डिलीवरी होती है और उसी के अनुसार उनकी बॉडी लैंग्वेज होती है और होता फेशिअल एक्सप्रेशन. सामने वाला मुग्ध हो जाता है. भाषण के दौरान जनता कोमुग्धा कर देना एक बात है और उस भाषण में कही गयी बात को सही ठहराना दूसरी बात. अब 8 नवम्बर वाले उनके भाषण में से अभिनय तथा प्रभाव के तत्त्व को अलग कर दें तो इस सरकार द्वारा पकडे गए काले धन की संख्या पिछली सरकारों से बहुत ज्यादा नहीं है. चाहे वह यू पी ए की सरकार थी या संयुक्त मोर्चे की. 
अब ज़रा आंकड़ों को देखें , प्रधान मंत्री जी ने कहा था कि विगत ढाई साल में उन्होंने यानी उनकी सरकार ने 1,25,000 करोड़ का काला धन एकत्र किया. यह केवल कुल राशि है सरकार ने कोई आंकडा नहीं दिया कि किस मद में कितना मिला या पकड़ा है. लेकिन संसदीय प्रश्नों के उत्तर  में वित्त मन्त्रालय ने बताया है कि 65 , 250  करोड़ रूपए 2016 में आय स्वेक्षा घोसना के तहत आये , जिसका 45 % टैक्स में चला जाएगा , 21,354  करोड़ रूपए अघोषित आय पकड़ी गई. 22,475   करोड़ रूपए कर दाताओं से अतोरिक्त वसूला गया. 8,186 करोड़ रूपए एच एस बी सी बैंक की जेनेवा शाखा में भारतीयों द्वारा रखी गयी थी और जिसके बारे में 2011 में फ़्रांसिसी सरकार ने सूचना दी  थी. 5000 करोड़ रूपए कुछ भारतियों ने विदेशों में छुपा कर रखा था और इसके बारे में कुछ खोजी पत्रकारों ने अप्रैल 2013 में खुलासा किया था. कुल मिला कर होता है 1,22,265   जो मोदी जी की घोषित राशी के लगभग बराबर है. अगर इसमी से 65,250 करोड़ रूपए अलग कर दिए जाय , क्योंकि ये स्वेक्षा से घोषित आया के मद में आये है तो इसी यह राशी काफी कम हो जाती है. फिर भी इसे भी जोड़ लेते है और इसी परिभाषा को मानते हैं तब भी इतनी ही अवधि  में  यू पी ए सरकार नें 1,30,800 करोड़ का काला धन पकड़ा था. अब मोदी जी समर्थक कह सकते हैं कि उन्होंने घोटाले बाज यू पी ए सरकार के मुकाबले  क़ानून को सख्त किया है जिसमें दंड की भी व्यवस्था है. लेकिन इससे उपलब्धि क्या हुई? कितने लोगों ने आय की खुद बखुद घोषणा की. 1997 में आय की घोषणा करने की योजना चली थी जिसमें लगभग 5 लाख लोगों ने आय की घोषणा की थी. और इससे 33 ,695 करोड़ रूपए की आय का पता चला था. जो कि मौजूदा रूपए के मूल्य के मुताबिक 85 ,153 करोड़ बनता है. यह राशि मोदी जी के वर्मान 65,250 करोड़ से ज्यादा है. इससे साफ़ प्रमाणित होता है कि मोदी जी के प्रयासों से काले डझन पर बहुत ज्यादा आघात नहीं लगा है. अब विदेशों में यहाँ से जो रूपए जा रहे हैं वह देखिये. वाशिंगटन डी सी की संस्था ग्लोबल फिनान्शिअल इंटिग्रिटी के अनुसार 2004 से 2013 के बीच हर साल 51 अरब डालर विदेश गए. इनमें से कुछ लौटे भी. मोदी जी ने 8 नवम्बर को घोषणा की कि इन रुपयों को लाने के लिए विदेशी  बैंकों से प्रयास चल रहे हैं. यहाँ यह बता देना ज़रूरी है की यह प्रयास 2009 में लन्दन में जी 20 की बैठक के बाद से चल रहा है. ताकि विदेश लें दें में पर दर्शिता आ सके. हाँ यहाँ यह मना जा सकता है कि मोदी जी नोट बंदी का प्रयास अतीत से चली आ रही धारा में एक महत्वकांक्षी बाँध है. लेकिन उनके बड़े बड़े दावे केवल जुमलेबाजी है.               

Wednesday, December 28, 2016

प्रधानमंत्री जी यह आश्वासन क्यों?

प्रधानमंत्री जी यह आश्वाशन क्यों? 

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने 19 दिसंबर को कानपुर में पार्टी कार्यकर्ताओं की एक रैली में कहा कि “ राजनितिक दलों को चंदे की नियमावली में उन्होंने कोमा तक नहीं बदला है.” प्रधान मंत्री जी का यह दवा गलत है क्योंकि मई में मोदी जी के  राज्य मंत्री किरण रिजीजू  ने कहा था कि उनकी सरकार ने “ विदेशी चंदा नियमन कानून 2010 में वित्त विधेयक 2016 के जरिये परिवर्तन किया है. इस वित्त विधेयक को संसद ने बजट सत्र के दौरान 5 मई को पारित किया था. वित्त अधिनियम 2016 के विदेश मुद्रा नियमन अधिनियम की धरा 233 के मुताबिक कोई भी बहुराष्ट्रीय  कंपनी चाहे वह देशी हो या विदेशी  अगर विदेश में  पंजीकृत हो या उसकी कोई सहायक कंपनी विदेश में हो उसे विदेशी कंपनी माना जाएगा. जबकि कोई भी कंपनी जिसमें 50 प्रत्यिशत से कम विदेशी पूंजी हो उसे अब विदेशी कंपनी नहीं मना जाएगा. यह संसोधन सितम्बर 2010 से लागू माना जाएगा. संसद में कई सांसदों ने इसका विरोध भी किया था और आरोप लगाया था कि सरकार जब एन जी ओ पर रोक लगा रही है तो और कांग्रेस के लाभ के लिए ऐसे क़ानून बना रही है. वित्त मंत्री अरुण जेटली संसद में इसपर बोलने वाले भी थे पर संसदीय नियमो का हवाला देकर स्पीकर नमे इस पर रोक लगा दी. जब धारा 233 पारित हो गयी तो कांग्रेस और भाजपा ने दिल्ली हाई कोर्ट के खिलाफ एक फैसले पर सुप्रीम  कोर्ट में  दायर अपील को वापस ले लिया. दिल्ली हाई कोर्ट ने उक्त दोनों पार्टियों को विदेशी चंदे के मामले में कानून भंग का दोषी बताया था. “ जहां तक चुनाव के लिए दिए गए धन की बात है तो इसमें महत्वपूर्ण है कि उस धन के स्रोत और उसकी वैधता में पारदर्शिता हो.” भाजपा के प्रवक्ता जी वी एल नरसिंह राव  ने अप्रैल  में कहा था कि  प्रस्तावित बदलाव के लिए किसी तरह का समझौता नहीं किया गया है. लेकिन चुनावी चंदे पारदर्शी नहीं हैं क्योकि 20,000 रूपए तक के चंदे के बैर में स्रोत बताना जरूरी नहीं है. अब मजे की बात यह है कि भाजपा, कांग्रेस , बसपा, सीपीआई , सीपीएम और एनसीपी जैसी 6 बड़ी पार्टियों के 2014 – 15 में कुल धन का 60 प्रतिशत इसी तरह के चंदे से आया था. आंकड़ो के मुताबिक़ 2013 – 14 और  2014 -15  भाजपा को 977 करोड़ रूपए इसी अज्ञात स्रोत से मिले थे. कांग्रेस को इसी अवधि  में  अज्ञात स्रोत से 969  करोड़ की आमदनी हुई थी. एक तरफ सरकार कालाधन ख़त्म करने का अभियान चला रही है दूसरी तरफ राजनितिक दल कानून के बाई पास का लाभ उठा कर करोडो कमा रहे हैं. यही नहीं सरकारी या सियासी रसूख के कारण इनके पुराने जमा नोट भी बनाये में बदल गए. नोट बंदी का विरोध दो एक दल ही क्यों कर रहे हैं और बाकी या तो चुप हैं या केवल गलाबजी कर रहे है हैं. लोगों को यानि आम आदमी को ए टी एम् की कतार में सारे दिन खडा होने के बाद या तो पैसे नहीं मिलते या केवल दो हज़ार मिलते हैं. सोचने की बात है कि नोट छापते हैं तो जाते कहाँ हैं. हाल में चेन्नई शहर में छपे पड़े और 100 करोड़ रूपए त्तथा सवासौ किलो सोना जब्त हुआ था. बाद में पता चला कि इसमें   मुख्य मंत्री को प्रसाद पहुँचाने वाले  और मुख्या मंत्री के कृपा पात्र मंदिर के पुजारी सामिल थे.  सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ दीरेक्ट टैक्स के अफसर बताते हैं कि राजनितिक दलों के लिए पुराने नोट बदलने के लिए पूरा सिडिकेट चल रहा है. कार्य कर्ताओं का पूरा जथा इस काम में लगा है. इतना होता तो गनीमत थी कई ऐसे डसल भी दिखने लगे हैं जिनका किसी ने नाम ही नहीं सुना. पिछले दिनों चुनाव आयोग ने 255 दलों को अपनी सूची से बहार कर दिया. इन दलों ने 2005 से 2015 के बीच किसी भी चुनाव में एक भी उम्मीदवार नहीं खड़े किये थे. दिलचस्प बात यह है कि इंडिया प्रोग्रेसिव जनता दल का पता वही है जो गृह मंत्री राजनाथ सिंह का है और हिन्दुस्तान कझगम नाम के एक दल का पता दिल्ली में वही है जो जम्मू कश्मीर सी आई डी का दफ्तर है. आयोग की सूची  से बहार होने वाले सबसे ज्यादा  दल दिल्ली में हैं, इनकी संख्या 52  है. नोत्बंदी के जरिये रस्ते बंद हो रहे हैं और नोट बदलने तथा कालाधन पचाने के तरीके बनते जा रहे हैं. बात घूम फिर कर मोदी जी के कानपुर के  उसी भाषण पर आती है जिसमें उन्होंने अपने दल के सदस्यों को मुतमईन किया था कि उन्होंने  चन्दा क़ानून में कोई बदलाव नहीं किये हैं. इस आश्वाशन की क्या जरूरत पद गयी थी बताएँगे मोदी जी?

Tuesday, December 27, 2016

एंटी करप्शन आंदोलन बेअसर क्यों हो जाता है

एंटी करप्शन आन्दोलन बेअसर क्यों हो जाता है 

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के 86 प्रतिशत नोटों का अचानक चलन बंद कर दिया. शुरू में जनता को बताया गया कि कालेधन को ख़त्म करने के लिए यह कदम उठाया गया है. जनता ने तालियाँ बजायीं.नोट बंदी से होने वाली परेशानियां डेढ़ महीने से ज्यादा दिनों से कायम हैं और इसके साथ ही घटता  जा रहा है उसके पक्ष में कायम  शुरुआती उत्साह . इसके स्वरुप और इसे लागू किये जाने के तौर तरीकों पर तीखी टिप्पणियाँ की जाने लगीं हैं. इसके बावजूद आबादी का एक बड़ा भाग इसके इरादों को सही बता रहा है. लोग इस बात से सहमत हैं कि इससे अर्थ व्यवस्था को आघात लगा है. लेकिन विपक्ष की आलोचनाओं को सुनाने के लिए लोग तैयार नहीं हैं. बहुत लोग प्रधान मंत्री को एक मौका देने के पक्ष में हैं ताकि वे कला धन ख़त्म करने के अपने दावे को साबित कर सकें. इसका कारण है कि हम एक शासन  के चश्मे से भारत को देखते हैं. हमलोग लोकतंत्र और शासन  में फर्क करने की काबिलियत गवां चुके हैं. इसलिए हमारी नज़र में कालाधन देश की सबसे बड़ी बुराई है. जबकि शासन  के तर्क से बाहर काले धन की कोई अहमियत नहीं है. इसे समझने के लिए एक सरल सवाल है कि सही में कला धन है क्या? यह किसके लिए काला है? यक़ीनन यह धन अर्थ व्यवस्था से छुपा नहीं है. यानि जहां इसे निवेशित किया गाया है या जहां इसका उपयोग हो रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ केवल 6 प्रतिशत कला धन ही नगदी के रूप में जमा है. यह धन समाज से भी नहीं छिपा है.  सही में कला धन क्या है इसका सीधा उत्तर है कि वह धन जो शासन की निगाहों में नहीं है. हालाँकि सब जानते हैं कि यह है और इसका उपयोग हो रहा है. शसन की निगाहों में कला धन वह सारा धन है जो देश के भीतर आर्थिक व्यापार में लगा है , यह करोडो रूपए के काम में भी हो सकता है और सौ रूपए की नगदी लें दें में भी हो सकता है. अब यह शासन पर निभर करता है कि वह एक को नजर अंदाज़ कर दे और दूसरे को सजा दे दे. उसकी यह निर्भरता उसके राजनीतिक झुकाव के अनुरूप होती है. वह चाहे तो किसी बड़ी संस्था के अरबों रूपए को विकास के नाम पर यूँ ही ताल दे और चाहे तो छोटे व्यापार पर छापे मार दे. अब कोई पूछ सकता है कि समस्या क्या है , शासन का ही नजरिया क्यों नहीं अपनाया जाय?  दरअसल हमने शासन को बादशाह बना दिया है. लोकतंत्र में शासन की परिभाषा है , जनता द्वारा, जनता के साथ और जनता के लिए. लेकिन शासन में यह दूसरा हो जाता है. यहाँ वह एक ऐसी व्यवस्था बन जाता है जिस पर ऊँगली उठाना गलत माना जाता है. यहाँ “ भक्ति” की अपेक्षा की जाती है. भारत में काले धन के प्रति जनमत के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि हमने शासन की तरह इसे देखना आरंभ कर दिया है और जनता तथा सिविल सोसाइटी के द्रिस्तिकों को त्याग दिया है. इसके लिए राजनितिक वर्णपट पर देशभक्ति की कलई कर दी गयी है. अब जब इस अवस्था से वशीभूत जन जब शासन को ही राष्ट्र समझने लगता है तो अँधेरे में दिखाई पड़ने वाले  काल्पनिक भूत की तरह  कालाधन उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा दिखने लगता है. इसलिए वे कहते हैं कि राष्ट्र हित में वे नोट बंदी से होने वाली तकलीफों को बर्दाश्त कर सकते हैं. सवाल इसे लागू किय जाने के तरीके पर उठता है तो बड़ी चालाकी से इसे राजनीती का रंग दे दिया जाता है. 

अब सवाल उठता है कि इसे क्यों कर अलग से देखा जाय? सरल तरीका है कि इसे जनता और उसकी आर्थिक गतिविधियों के सन्दर्भ में देखाजाय . इस तरह आर्थिक गतिविधियों की हम पड़ताल कर पायेंगे. इसमें दो तरह कि गतिविधिया होती है. एक तो धन जमा करने कि. जो बड़े उद्योगपति और व्यापारी विभिन्न तरीकों से करते हैं , रिश्वतखोरी वगैरह से भी धन संग्रह किया जाता है. आम आदमी के लिए यह धन भी अर्थ व्यवस्था में इस्तेमाल होता है. एक दूसरे तरह की भी आमदनी है जिस के जरिये जमा धन सरकार के अधिकार क्षेत्र से बहार है वह है मजदूरों, छोटे छोटे व्यापारियों और इसी तरह के लोगों द्वारा कमाई गयी दौलत, यह दौलत अपने ऐकिक स्वरुप में इतनी छोटी होती है कि इसपर निगाह जाती ही नहीं. लेकिन अपने समन्वित स्वरुप में यह भी अघोषित धन है. इस मोड़ पर यह सोचने की बात है कि 1970 से अबतक जितने भी एंटी करप्शन आन्दोलन हुए सबने उग्र राष्ट्रवादी, सांप्रदायिक और आरती रूप से दक्षिण पंथी ताकतों को मज़बूत किया है. शुरू में यह आन्दोलन कालेधन के प्रति काम काज करने वालों के गुस्से से शुरू होता है और यूँही  ही ख़त्म हो जाता है. नोट बंदी  के वर्तमान आन्दोलन का हश्र भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है.        

Monday, December 26, 2016

यह नयी युक्ति है

यह  नयी युक्ति है  
ढाई साल से ज्यादा हो गए और इतनी अवधि  किसी भी आदमी या नेता के मानस को समझने के लिए यथेष्ट होता है. किसी भी देश का प्रधानमंत्री उस देश की जनता का मुकद्दर और मुस्तकबिल दोनों उसके हाथ होप्ता है. ऐसे में अपने नेता को खास कर उसके मानस को जानना जरूरी है. क्योंकि ई वी एम मशीन का बटन दबा कर एक तरह से देश की जनता उस नेता के हाथ में अपना भविष्य सौंप देती है. यदि प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के ग्राफ को देखे तो उनके मानस को पढ़ना कठिन नहीं होगा. जबसे उन्होंने 2014 के लिए चुनाव प्रचार शुरू किया मतदाताओं से उनकी एकमात्र अपील थी कि विगत 60 सालों के अन्य दलों के कुशासन से देश को मुक्त कराने के लिए बी जे पी और उन्हें एक मौक़ा दें. चुनाव जीतने के बाद भी उनकी पार्टी और खुद उनकी ओर से जनता को यह समझाने  की कोशिश की जाती रही कि आज़ादी के बाद से देश में कुछ नहीं हुआ वे सब कुछ ठीक कर देंगे. जब उनपर  वायदों को पूरा नहीं करने के सम्बन्ध में पूछा जाता है तो वे और उनके समर्थक इसी दलील की आड़ में छिपने की कोशिश करते नज़र आते हैं . अक्सर यह कहा जाता है कि पिछली सरकारों को साठ साल दिया और इसे पांच साल नहीं दे सकते. यह बचकाना दलील है. अभी हाल में नोट बंदी पर जब टीका टिपण्णी होने लगी तो कहने लगे कि एक पूर्व प्रधानमंत्री ने ऐसा करना चाहा था पर करने का सहस नहीं जुटा पाए थे. यह अपना दोष दूसरी सरकारों पर मढने जैसा है. वैसे दूसरों पर दोष मढने का मतलब आधा दोष या गलतकारी को कबूल करना है. ऐसा कह कर मोदी कबूल कर रहे हैं कि गलती हो गयी. वे इस स्वीकारोक्ति को इस तर्क की आड़ में छिपाना चाहते हैं कि चूँकि पिछले प्रधान मंत्री नहीं कर सके और हम कर के दिखा रहे हैं. मजे कि बात है कि यह दलील तब उछाली गयी जब पार्टी के कई सांसदों ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से कहा कि नोट बंदी का दाँव उलटा पद गया और नगदी के लगातार आभाव से लोग क्रोधित होने लगे हैं. 

आपमें से बहुतों को याद होगा कि मई 2015 में अपनी सरकार के पहले वर्ष का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि जो लोग कहते हैं कि अच्छे दिन का जो वादा किया गया था वे कहाँ आये. उन्होंने कहा कि यह पूछने वाले वही लोग हैं जो साथ साल तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज थे. 

मोदी जी ने कहा कि देश के किसानों को सुरक्षा चाहिए और 60 साल में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया. उन्होंने लाल किले से 20 15 में अपने दूसरे भाषण में कहा की, हम इस नजरिये को बदलना चाहते हैं . लेकिन अगर आंकड़े देखें तो पता  चलेगा कि किसानो की विपदा कयाम है. यहाँ तक कि ख़ुदकुशी की तादाद भी घटी नहीं है. कोई सुधार दिख नहीं रहा है. यहाँ तक कि नोट बंदी का बहुत बड़ा आघात किसानो पर लगा है. असली दुष्प्रभाव तो महीने दो महीने के बाद दिखेगा. सर्जिकल स्ट्राइक  पर डींग मारते हुए मोदी जी ने कहा कि   उन्होंने एक रैंक एक योजना लागू कर डी है लेकिन आज भी वह केवल कागजों पर है उसे अमल में नहीं लाया गया है. 

उत्तर प्रदेश में चुनाव हने वाले हैं और मोदी, अखिलेश और राहुल के लिए या मैदाने जंग बना हुआ है. पिछली सरकारों के कुछ नेता यहाँ बिम्ब बन चुके हैं और मोदी जी उन्हने सामने रख कर वर्तमान नेताओं की खिल्ली उड़ाते हैं. उत्तर प्रदेश में नेहरू जयंती पर एक समारोह में मोदी जी ने कहा कि किसी ने भी “ लोक विकास सम्बन्धी नेहरु जी कि आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया.” किसी ने उन्हें ऐसी श्रधांजलि नहीं डी जैसी यूपी के इस सांसद ने दी है. 

यही नहीं गोधरा कांड के लिए भी वे कहा करते थे कि इसके लिए कांग्रेस , मुसलमान और पकिस्तान जिम्मेदार है. प्रश्न यहाँ यह कि आखिर कबतक दूसरों पर दोष मढ़ते रहेंगे और उसकी आड़ में छिपते रहेंगे. भाषणों और सभाओं के अलावा कुछ ठोस करें भी तो. हालत जिस तरह बेकाबू हो रहे हैं और सत्ता के गलियारों में जो सरगोशिया चल रहीं हैं उनसे पता चलता है कि जनता का ध्यान भटकाने के लिए गर्मियों से पहले कहीं जंग ना शुरू कर दें.